– पूज्य बापूजी
भ… ग… वा… न… – भरण-पोषण की सत्ता, गमनागमन की सत्ता, वाणी की सत्ता और सब मिट जाय फिर भी जो सत्ता मिटती नहीं वही भगवत्सत्ता है । मंदिर का भगवान भी इस चैतन्य भगवान ने ही बनाया है । आत्मभगवान नहीं होता तो मंदिर के भगवान को कौन बनाता ? कौन देखता, कौन पूजा करता ?
एक उच्च कोटि के महात्मा थे । उनसे एक राजा ने पूछा : ‘‘महाराज ! सबसे बड़ा भगवान कौन है ?’’
महात्मा : ‘‘सबसे बड़ा भगवान तो तुम्हीं हो ।’’
‘‘महाराज ! ऐसे कैसे ?’’
महाराज ने देखा कि अभी इसको सत्संग का और पुण्य का प्रभाव नहीं है । महाराज ने कहा : ‘‘अच्छा भाई ! महादेव हैं सबसे बड़े भगवान ।’’
राजा ने (खुश होकर) कहा : ‘‘हाँ, हाँ, हाँ… !’’
राजा शिवलिंग आदि ला के पूजा करने लगा । एक दिन उसने चावल चढ़ाये, पूजा करके चला गया । बाद में देखा तो एक चूहा महादेव के ऊपर चढ़कर चावल खा रहा है ।
उसने सोचा, ‘अरे, महादेव भगवान से तो चूहा बड़ा है ।’ उस चूहे को पूजा के लिए रख लिया । ‘जय चूहा स्वामी… प्रभु ! जय चूहा स्वामी…’ आरती बनानेवालों ने आरती बना दी । जब बिल्ली आयी तो चूहा तो प्राण बचाने को भागा बिल में । ‘जय बिल्ली माता… माँ ! जय बिल्ली माता…’ आरती-वारती कल्पना चालू हुई । फिर कुत्ता आया तो उसे देखकर बिल्ली सिकुड़ गयी । अब राजा ‘जय कुत्ता देवा… प्रभु ! जय कुत्ता देवा…’ करने लगा । उसकी पत्नी ने दूध रखा था, कुत्ता जूठा कर गया तो पत्नी ने मारा डंडा । कुत्ता ‘कें कें…’ करने लगा ।
राजा पत्नी से बोला : ‘‘अरे, सबसे बड़ी तो तू हो गयी !’’
एक दिन किसी बात पर रानी ने गलती की तो राजा क्रोधित होकर उठा । रानी माफी माँगने लगी ।
राजा बोला : ‘‘अरे, धत् तेरे की… सबसे बड़ा तो मैं था !’’
वह महात्मा के पास अपना अनुभव सुनाने गया । महात्मा ने कहा : ‘‘सबसे बड़े तुम ही हो… लेकिन शरीर को तुम ‘मैं’ मानोगे तो रावण का रास्ता है । शुद्ध-बुद्ध तुम्हारा आत्मा सबसे बड़ा है । काल आयेगा तो उसके आगे तो तुम्हारा शरीर कुछ भी नहीं है । विरोधी आयेगा, तुमको मार डालेगा तो क्या ? अतः सत्ता और शरीर के बल से बड़े नहीं हो पाओगे अपितु अपने असली आत्म-परमात्मस्वभाव को जानो तो तुम सबसे बड़े परमात्मा से एक हो जाओगे ।’’
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