ब्रह्मलीन भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज का महानिर्वाण दिवस : 02 नवम्बर
इन्द्रिय-संयम की प्रतिमूर्ति
पीजा खा लिया, फलाना खा लिया… मन ललचाया और खा लिया । नहीं… क्या खाना, कब खाना, कितना खाना और कैसे खाना ? इसकी सूझबूझ के अनुसार इन्द्रियों को संयत करना चाहिए ।
मेरे गुरुदेव साँईं श्री लीलाशाहजी जब विद्यार्थी थे तो कहीं विद्यालय में या इधर-उधर अथवा घर में मन करता कि ‘यह खायें’ तो मन से कहते : ‘हे मन ! तेरा गुलाम बनूँगा ? ले !…’ वस्तु रखते और हाथ बाँध के बैठ जाते । बोलते : ‘ले खा, खा, खा… खा के दिखा !’ ऐसा करके मन को ललचा-ललचा के वह चीज फेंक देते अथवा किसीको दे देते ।
इन सर्पों को मुझे दे दे !
मेरे गुरुजी की मामी थी । उसने संत होने से उन्हें रोका लेकिन रुके नहीं । बाबाजी तो संत हो गये । मामी रोयी, कहा : ‘‘आप जाते हो तो जाओ परंतु एक वचन दो कि जब मैं मरने पड़ूँ तो तुम मेरे को कंधा देने को आओगे ।’’
लीलारामजी ने कहा : ‘‘ठीक है ।’’
फिर साल-दो साल में कभी-कभी मामी के घर चले जाते थे । जब वह बुढ़िया हुई तो एक दिन उसको कहा : ‘‘मामी ! ये जो हीरे-जवाहरात और गहने पहने हैं न, ये सर्प हैं । इन सर्पों को साथ में रखा और मर गयी तो ‘इनका क्या होगा ?’ ऐसा सोच के फिर आकर सर्प की योनि में पड़ेगी । इसलिए मेरे को दे दे ।’’
लीलाराम बापू ने वे गहने ले लिये और उनको बेच-बाच के मामी के हाथ से ही गरीबों को, आवश्यकतावालों को, अकालपीड़ितों को अन्न-वन्न दिला के छुट्टी करा दी । फिर हरिद्वार में बसे । मामी मरने को हुई तो एकाएक वहाँ से गये । किसीके चिंतन का आंदोलन शुद्ध हृदय झेल लेता है । एक दिन मामी के पास रहे, दूसरे दिन मामी अलविदा हो गयी । 12 दिन मामी के परिवार को संतोष दिया, सत्संग-वत्संग किया ।
इस प्रकार उनका पूरा जीवन परोपकारमय, कल्याणकारी था । उनकी रग-रग में परहित, सर्व-मांगल्य के सद्भाव के सिवाय कुछ न था । उनका जीवन-संदेश था : ‘‘अपने को अमर आत्मा जानो और जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक भलाई के कार्य करते रहो ।’’
जब हम गुरु को स्वीकार हो गये…
मेरे गुरुदेव ब्रह्मरूप, ईश्वररूप ही तो हैं । मैं तो गुरु की गोद चला गया । ‘मेरे साँईं ! मेरे साँईं !!…’ साँईं से बातें करता… लोगों को तस्वीर दिखती परंतु मेरे को तो मेरे गुरुजी साक्षात् देख रहे हैं, हँस रहे हैं, प्रसन्न हो रहे हैं, प्रेरणा दे रहे हैं । गुरुजी और हमारी मानसिक वार्ता होती । ईश्वर निराकार हैं परंतु ईश्वर जहाँ प्रकट हुए हैं वे मेरे गुरु तो साकार हैं ।
मेरे गुरुजी ने अपने किसी सेवक को कहा था : ‘‘इसकी (बापूजी की) मेरे में प्रीति तो है, श्रद्धा है ।’’
वह गुरुजी के सामने चुप हो गया फिर बोले : ‘‘अरे, मजा (ब्रह्मानंद) भी लेगा !’’
उस सेवक ने मेरे को सुनाया । मैंने कहा : ‘‘अपन तो स्वीकार हो गये । गुरुजी के हृदय में स्वीकार हो गये, बस हो गया और क्या है !’’
गुरुजी ने बोला, ‘मजा भी लेगा’ तो वह ब्रह्मानंद मजा ऐसा है कि कितना बाँटता हूँ फिर भी उसमें कभी कमी ही नहीं होती, अब भी ब्रह्मानंद का मजा ले रहा हूँ । तुम भी ले रहे हो । हे गुरुकृपा ! तू हमारा हृदय कभी न छोड़ना ।
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