(श्री हनुमान जयंती : 16 अप्रैल)
– पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
कर्म को, भक्ति को योग बनाने की कला तथा ज्ञान में भगवद्योग मिलाने की कला हनुमानजी से सीख लो, हनुमानजी आचार्य हैं । लेकिन जिसके पास भक्ति, कर्म या योग करने का सामर्थ्य नहीं है, बिल्कुल हताश-निराश है तो… ? ‘मैं भगवान का हूँ, भगवान की शरण हूँ…’ ऐसी शरणागति योग की कला भी हनुमानजी के पास है ।
हनुमानजी रामजी की तो सेवा करते हैं लेकिन रामभक्तों की भी समस्याओं का हल करने के लिए उनके सपने में जा-जाकर उनका मार्गदर्शन करते हैं । कई ऐसे भक्त हैं जो बताते हैं कि ‘हनुमानजी सपने में आये, बोले : बापू से दीक्षा ले लो ।’
वायुपुत्र हनुमानजी, वायु देवता, अंतरात्मा देवता हमारा मंगल चाहते हैं । हम भी सभीका मंगल चाहें तो भगवान के स्वभाव से हमारे स्वभाव का मूल एकत्व हमें समझ में आने लगेगा । ऐसी कोई तरंग नहीं जो पानी न हो । ऐसा कोई घड़े का आकाश नहीं जो महाकाश से अलग हो । ऐसा कोई जीवात्मा नहीं जो परमात्मा से अलग हो । लेकिन काम, क्रोध, वासना, कर्तृत्व-अभिमान ने जीव को भुलावे में डाल दिया ।
सेवक हो तो ऐसा
वाणी के मौन से शक्ति का संचार होता है, मन के मौन से सिद्धियों का प्रादुर्भाव होता है और बुद्धि के मौन से आत्मा-परमात्मा के ज्ञान का साक्षात्कार होता है । हनुमानजी कम बोलते थे, सारगर्भित बोलते थे । आप अमानी रहते थे, दूसरों को मान देते थे । यश मिले तो प्रभुजी के हवाले करते, कहीं गलती हो जाय तो गम्भीर भी इतने कि सिर झुकाकर रामजी के आगे बैठते थे । प्रेमी भी इतने कि जो भरत न कर सके, लक्ष्मण न कह सकें वह खारी, खट्टी-मीठी बात हनुमानजी कह देते थे ।
यदि भरत रामजी से बोलें कि ‘‘आप मेरे कंधे पर बैठिये ।’’ तो रामजी नहीं बैठेंगे । लक्ष्मणजी कहें कि ‘‘आपके कोमल चरण धरती पर… एड़ियाँ फट गयीं, पैरों में काँटे चुभ रहे हैं… आप मेरे कंधे पर बैठिये ।’’ तो रामजी नहीं बैठेंगे । लेकिन हनुमानजी कहते हैं कि ‘‘प्रभुजी ! आपके कोमल चरण कठोर, पथरीली धरती पर… मैं तो पशु हूँ । आइये, आप और लक्ष्मणजी – दोनों मेरे कंधे पर बैठिये ।’’
दोनों भाई बैठ गये और हनुमानजी ‘जय श्रीराम !’ कह के उड़ान भरते हैं ।
हनुमान जयंती पर हनुमानजी की उपासना व स्मृति बुद्धि, बल, कीर्ति और धीरता देनेवाली है । निर्भीकता, आरोग्य, सुदृढ़ता और वाक्पटुता चाहनेवाले लोग भी हनुमान जयंती के दिन हनुमानजी की गुणगाथा सुनकर अपने में वे गुण धारण करने का मन बना लेंगे तो उनका संकल्प भी देर-सवेर फल दे सकता है ।
आम आदमी मन चाहे देवी-देवता, भगवान की भक्ति में लगते हैं और वही भक्ति का फल उन्हें आत्मसाक्षात्कारी महापुरुषों तक पहुँचा देता है । सुयोग्य साधक के लिए तो
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् ।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ।।
राजकुमार प्रचेताओं ने ऐसी तो साधना की कि शिवजी प्रकट हो गये व शिवजी से विष्णुजी के दर्शन का विष्णु-स्तवन का साधन, मंत्र लिया ।
विष्णुजी प्रसन्न हुए, प्रकट होकर बोले : ‘‘तुम्हें देवर्षि नारदजी का सत्संग मिलेगा ।’’ देवर्षि नारदजी ने उन्हें फिर आत्मसाक्षात्कार करा दिया । रामकृष्णदेव को माँ काली ने तोतापुरी गुरु के पास पहुँचाया और गुरु ने उन्हें साकार के मूल निराकार तत्त्व में, जीव-ब्रह्म के एकत्व में पूर्णता दिलायी । हमने भी बाल्यकाल से देवी-देवता, श्रीकृष्ण, हनुमानजी आदि की साधना-उपासना की । ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज मिले तो ‘ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः’ गुरुकृपा का लाभ लिया ।
गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई ।
जौं बिरंचि1 संकर2 सम होई ।। (रामायण)
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।।
(गीता : 4.33)
सारी साधनाओं व पूजा का फल यह है कि ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु मिले । रामकृष्णदेव आत्मसिद्धि को प्राप्त हुए तोतापुरी गुरु की कृपा से । प्रचेता नारदजी की, छत्रपति शिवाजी समर्थ रामदासजी की, नामदेवजी विसोबा खेचर की कृपा से और हम ‘ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः’ अपने गुरुदेव से… ।
- ब्रह्माजी शंकरजी
Ref: ISSUE315-March-2019
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