– पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
गुरुपूर्णिमा की भारी महिमा है । वर्षभर के सत्कर्मों से जो पुण्य उपलब्ध होता है वह एक गुरुपूनम के पर्व पर गुरु-सान्निध्य अथवा गुरु-दर्शन, गुरुज्ञान-श्रवण से प्राप्त हो जाता है । जो मानव को लघु से गुरु बना दे वह है गुरुपूर्णिमा, जो चल से अचल में प्रतिष्ठित कर दे वह है गुरुपूर्णिमा, जो नश्वर देह को मैं मानने की जीव की भूल को हटाकर उसे अपने शिवस्वभाव में जगा दे वह है गुरुपूर्णिमा का पावन उत्सव ।
हमारी आसुरी, पाशवी आदि तमाम वृत्तियों को सुसंस्कृत और सुसज्ज करके मानव-मानव के प्रति प्रेम एवं उनमें छिपे हुए महेश्वर को देखने की दृष्टि के निर्माण की जो कथा-वार्ता दें और जीव को ब्रह्मस्वरूप में जगाने की जो व्यवस्था करा के दें उन्हें ‘व्यास’ कहते हैं । जिज्ञासुओं को आत्मज्ञान का उपदेश जो दें उन्हें ‘गुरु’ कहते हैं और जो उस सत्यस्वरूप आत्मा-परमात्मा में स्थिति करा दें उन्हें ‘सद्गुरु’ कहते हैं ।
दिनभर व्रत-उपवास, संयम, सादगी और अपने सद्गुरु के, वेदव्यासजी के दिये हुए उपदेशों पर दृढ़तापूर्वक चलने के लिए और जीवन को जीवनदाता के साथ मिलाने के जो प्रयोग हैं उन प्रयोगों को जीवन में लाने के लिए व्रत लेने का दिन है गुरुपूर्णिमा ।
ब्रह्मवेत्ता गुरुओं की महिमा उजागर करते हुए भगवान शिवजी पार्वतीजी से कहते हैं :
जलानां सागरो राजा यथा भवति पार्वति ।
गुरूणां तत्र सर्वेषां राजायं परमो गुरुः ।।
जैसे जलाशयों में सागर राजा है ऐसे ही गुरुओं में व्यासजी जैसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष सर्वोपरि हैं, सचमुच में वंदनीय हैं, पूजनीय हैं । पूजन, वंदन या आदर तो हम उनका करते हैं परंतु अंतःकरण, तन व मन अपना पावन करते हैं ।
इस दिन साधक फल या दूध पर रहता है अथवा अल्प भोजन करता है परंतु हृदय का भोजन खूब करता है । कई दिनों से इंतजार करता रहता है कि ‘गुरुपूर्णिमा मनाना है, गुरुद्वार पर जाना है, जाना है…’ कलियुग में एक बहुत बड़ा फायदा है कि जब तुम पाप करते हो तब तुम्हारे पर लागू पड़ता है परंतु जब पुण्य करते हो तभी लागू पड़ता है ऐसी बात नहीं है, पुण्य का विचार करनेमात्र से वह लागू हो जाता है ।
कलि कर एक पुनीत प्रतापा ।
मानस पुन्य होहिं नहिं पापा ।।
‘कलियुग का एक पवित्र प्रताप (माहात्म्य) है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं पर मानसिक पाप नहीं होते ।’
(श्री रामचरित. उ.कां.: 102.4)
तो ‘गुरुपूर्णिमा मनाना है’ आदि जो विचार चलते रहते हैं उनसे भी साधकों को पुण्य हो जाता है ।
गुरुपूनम का उद्देश्य
गुरुपूनम का उद्देश्य क्या होना चाहिए ? संन्यासी इस पूनम से 4 मास का चतुर्मास शुरू करते हैं, ब्रह्मसूत्र, उपनिषद्, गीता आदि सत्शास्त्रों का अध्ययन करके अपनी साधना से सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम मति बना के मुक्ति का अनुभव करने के रास्ते छलाँग मारते हैं और अपने पास आनेवालों को उस प्रसाद से पावन करने का आरम्भ करते हैं । ब्राह्मण लोग इस पूर्णिमा से ब्रह्मविद्या के अध्ययन का आरम्भ करते हैं । और इस पूर्णिमा को साधु-संत, महात्मा, यति-योगियों के जीवन-प्रसंगों एवं कार्यों का पठन-पाठन, उनका बहुमान करने तथा उनके जीवन की ऊँची उपलब्धियों का सुमिरन करने और उनके आगे कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए सामान्य जीवन जीनेवाले लोग उनके चरणों में और शिष्यगण अपने सद्गुरु के चरणों में पहुँचते हैं और वर्षभर के व्रत-पर्वों के पूर्ण पुण्यफल को प्राप्त करते हैं ।
जैसे चमड़ा सारे शरीर में है परंतु गाल या ललाट पर रसगुल्ला लगाओ तो स्वाद नहीं आयेगा, रसगुल्ले का स्वाद लेना है तो जीभ की मुलाकात कराओ और फूल की सुगंध लेनी है तो नाक की मुलाकात कराओ ऐसे ही परब्रह्म-परमात्मा की पूर्णता का अनुभव करना है, इस अपूर्ण जीवन से अगर तुम ऊबे हो अथवा अपूर्ण जीवन तुम्हें तुच्छ लगता है – ऐसा सहयोग तुम्हारी सन्मति और सत्कर्म तुम्हें दे रहे हैं तो गुरुपूर्णिमा मनाओ, पूर्णपुरुषों की शरण जाओ और पूर्ण गुरुओं की कृपा पाकर पूर्ण तत्त्व का अनुभव कर लो यह गुरुपूनम का उद्देश्य है ।
गुरुपूर्णिमा पर इतना तो अवश्य करें
संसार के सब वैज्ञानिक तथा उनके आविष्कृत पदार्थ मिलकर मुझे वह सुख नहीं दे सकते जो मुझे सद्गुरु ने अपने दिल में दिलबर (परमात्मा) का सुख दिला के दे दिया । गुरु निगाहों से, वाणी से और अपने आचरण से भी देते हैं; दुःख में दिलासा, सुख में सावधानी और दुःख-सुख के सिर पर पैर रखकर परब्रह्म-परमात्मा का अनुभव करानेवाला प्रसाद भी देते हैं । ऐसे गुरुओं का आदर किये बिना हम कैसे रह सकते हैं ! जो गुरु ने दिया है उसका बदला थोड़ा चुकायें तभी तो पचेगा, मुफ्त का माल पचेगा नहीं ।
बोले : ‘कुछ तो सेवा करने दो बाबा !’ हाँ, तो 10 रुपया, 100 रुपया जो भी मेरे को आप गुरुदक्षिणा देना चाहते हैं वह मन-ही-मन ठान लो और मेरी समझकर अपने पास जमा कर लो । फिर तुम जहाँ भी रहते हो वहाँ छोटे-छोटे बच्चे मिलें या पड़ोसी मिलें उन्हें इकट्ठा करके एक दिन गीता या रामायण का पाठ रखो अथवा प्रभातफेरी निकालो और जितनी दक्षिणा मन में ठानी थी उसकी प्रसादी या सत्संग की पुस्तकें लेकर अपने-अपने इलाके में बाँट दो ।
दूसरी बात है मानस-पूजा करो । षोडशोपचार की पूजा से भी मानसिक पूजा का ज्यादा लाभ होता है । हम तो करते थे । शिष्य को गुरु से जो ज्ञान मिलता है वह शाश्वत होता है, उसके बदले में वह गुरु को क्या दे सकता है ! लेकिन वह कहीं कृतघ्न न हो जाय इसलिए अपने सद्गुरुदेव का मानसिक पूजन करके गुरुपूनम के निमित्त गुरुचरणों में शीश नवाते हुए प्रार्थना करता है : ‘हे गुरुदेव ! हम आपको और तो क्या दे सकते हैं, इतनी प्रार्थना अवश्य करते हैं कि आप स्वस्थ और दीर्घजीवी हों । आपका ज्ञानधन बढ़ता रहे, आपका प्रेमधन बढ़ता रहे । हम जैसों का मंगल होता रहे और हम आपके दैवी कार्यों में भागीदार होते रहें ।’
जो प्रतिदिन गुरु का मानसिक पूजन करके फिर ध्यान, जप करते हैं उनका वह ध्यान, जप दस गुना प्रभावशाली हो जाता है और अधिक एकाग्रता से करते हैं तो और दस गुना, मतलब सौ गुना लाभ हो जाता है ।
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