होली का उत्सव बहुआयामी है । यह स्वास्थ्य की तरफ, सामाजिक मेलजोल की तरफ और न जाने किस-किस ढंग से इस जीव को अपनी सच्चाई (अपने वास्तविक स्वरूप आत्मा-परमात्मा) की तरफ उत्साहित कर देता है । इस दिन बच्चे गीत गाते हैं । मारवाड़ के लोग गाते हैं :
फागणियो आयो रे…
मैंने बचपन में खूब निरीक्षण किया कि व्यक्ति का मन सुख के लिए क्या-क्या करता है । पहले ऑटो रिक्शा और मेटाडोर आदि प्रसिद्ध नहीं हुई थीं तो हाथ-लारियाँ थीं । होली के दिनों में जब कभी कालूपुर (अहमदाबाद) से गुजरना होता था तब 15-20-25 हाथ-लारीवाले शाम को माल डाल के कालूपुर की ओर लौटते थे तो वे लारी से लारी लगा देते थे, जैसे रेलगाड़ी के डिब्बे लगे रहते हैं और सभी फगुहारे आगे की 2-4 लारियों में बैठ जाते थे । ढोलक बजाते थे और हाथ में घुँघरू बँधे होते थे, पैरों में भी बाँध देते थे । फिर गाते थे :
फागणियो आयो रे… होली आयी रे…
पीछे बस आ जाय और हॉर्न बजाये पर होली के दिन कोई नहीं सुनता । इतना सहज, निर्मल और निर्द्वन्द्व जीवन कि बस की ‘भों-भों’ और संसार की ‘भों-भों’ की होली के दिन परवाह नहीं रहती – ‘पीछे कौन क्या कह रहा है – कोई परवाह नहीं, आज तो निखालिस आनंद में नाच रहे हैं ।’
होली के बाद धुलेंडी का त्यौहार आता है । इस दिन लोग रंग उड़ाते हैं । रंग उड़ाते-उड़ाते फिर कोई धूल भी उड़ाने लगे तब से शायद इस त्यौहार का नाम ‘धुलेंडी’ पड़ा । धूल उड़ाने के पीछे संकेत यह है कि तुम्हारा जो आज तक का पैदा किया हुआ अहंकार है, आज तक का जो तुमने जाना है, माना है उसको धूल में डालकर निर्दोष बच्चे जैसे हो जाओ । तो धूल में भी खेलने से जो मजा आता है वह सोफासेट पर आराम करने से नहीं आता । व्यक्ति बोझीला होता गया – शिष्टाचार, नियम, डिसिप्लिन… ये अपनी जगह अच्छे हैं पर निखालिसता का, निर्दोष जीवन का, सरल और सहज जीवन का भी अपना मूल्य है ।
होली और धुलेंडी सरल, सहज और निर्दोष जीवन जीने का संकेत देती हैं । परंतु सरलता के पीछे कहीं बेवकूफी न जुड़ जाय । नियमों का त्याग करने के बाद अंदर जो सुषुप्त इच्छाएँ-वासनाएँ और दुष्कामनाएँ हैं, कहीं व्यक्ति उनमें गिर न जाय इसलिए संत भोले बाबा कहते हैं : ‘होली यदि खेलना है तो संत-सम्मत खेलिये, शास्त्र-सम्मत खेलिये ।’
जिन कार्यों से तुम्हारा तन कमजोर और मन दुर्बल होता है, समझ लेना वे हिरण्यकशिपु-सम्मत कार्य हैं और जिन उपायों से तुम्हारा तन तंदुरुस्त हो, मन प्रसन्न हो तो समझ लेना कि वे उपाय संत-सम्मत हैं ।
होली हुई तब जानिये, संसार जलती आग हो ।
सारे विषय फीके लगें, नहिं लेश उनमें राग हो ।।
आँख का, नाक का, कान का, रसना का और स्पर्श का विषय – ये सारे विषय मन की एक वृत्ति के चमत्कार हैं और मन चंचल है । मन की वृत्तियों को जितना पोसते रहेंगे उतना मन हमको कोसता रहेगा और मन की वृत्तियों को निवृत्त करके जब परमात्मशांति पायेंगे तो ही आनंद आयेगा ।
Ref: LKS285
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