देवी-देवताओं के अलग-अलग रूप व उनकी विविध वेशभूषा उनके विशिष्ट गुण दर्शाते हैं । भगवान विष्णुजी सृष्टि के पालनकर्ता होने से चतुर्भुजरूप हैं । प्रलयकर्ता होने से भगवान शंकरजी का तीसरा नेत्र अग्निस्वरूप है । माँ सरस्वती विद्या की देवी होने से हाथों में वीणा-पुस्तक धारण किये हुए तथा माँ काली दुष्टों की संहारक होने से गले में मुंडमाला पहने हुए दिखती हैं । गणपतिजी बुद्धिप्रदाता होने से बड़े सिरवाले तथा विघ्न-विनाशक होने से लम्बी सूँड़वाले हैं । ये सारी रूप-विविधताएँदेवी-देवताओं के विशिष्ट दैवी गुणों को प्रकट करती हैं ।
श्रीचित्र अथवा मूर्ति की पूजा क्यों ?
भगवान व सद्गुरु के श्रीचित्र अथवा मूर्ति को ईश्वर का, सद्गुरु का प्रतीक माना जाता है । मन को एकाग्र करने के लिए मूर्ति अथवा श्रीचित्र बहुत लाभकारी है । साधक प्रतिमा में अपने इष्टदेव या गुरुदेव के दर्शन करके हृदय में उनके गुणों का स्मरण करता है । धीरे-धीरे जब उनका श्रीचित्र हृदय में अंकित हो जाता है तब बाह्य श्रीचित्र की आवश्यकता नहीं रहती । साधक को समझ में आने लगता है कि मेरे इष्ट, मेरे गुरुदेव केवल एक श्रीचित्र में ही नहीं हैं बल्कि वे तो सर्वव्यापक हैं, सत्-चित्-आनंदस्वरूप हैं । इस प्रकार पूजन-अर्चन साकार से निराकार की ओर जाने का एक साधन है ।
अथर्ववेद (कांड 2, सूक्त 13, मंत्र 4) में प्राण-प्रतिष्ठा के लिए प्रार्थना है : हे भगवन् ! आइये और इस प्रतिमा में अधिष्ठित हो जाइये ।
ऐसी दृढ़ भावना व विश्वास रखें कि मानो ईश्वर या सद्गुरु प्रत्यक्षरूप से हमारे सामने विराजमान हैं । हम नित्य उनका धूप-दीप से पूजन आदि करें अथवा मानस-पूजन करें तो ईश्वरीय शक्ति का प्रत्यक्ष सान्निध्य हमें प्राप्त होता है ।
जैसे श्री रामकृष्ण परमहंसजी माँ काली की पूजा-उपासना में इतने तल्लीन हो जाते थे कि माँ प्रत्यक्ष दर्शन देकर उनसे बातचीत करती थीं तथा उनके हाथ से प्रसाद भी पाती थीं । मीराबाई भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा से इतनी तो तदाकार हो गयीं कि सदेह प्रतिमा में समा गयीं ।
पूज्य बापूजी के सत्संग में आता है : “बहती हुई नदी, सागर, चन्द्रमा, आकाश, प्रकृति या किसी वस्तु को अथवा भगवान या सद्गुरु के मुखमंडल को एकटक देखते-देखते मन शांत हो जाय तो इसे ‘रूपस्थ ध्यान’ कहते हैं । हम पहले भगवान की मूर्ति का ध्यान करते थे । जब गुरुजी मिल गये तो सारे भगवान गुरु-तत्त्व में ही समा गये । डीसा में हमारा साधना का कमरा कोई खोलकर देखे तो गुरुजी की प्रतिमा ही होगी बस । ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः…”
भगवान के चित्र तो चित्रकारों ने बनाये हैं । उस समय कोई कैमरा भी नहीं था । चेन्नई का चित्रकार भगवान को साँवला बनायेगा क्योंकि चेन्नई के लोग काले हैं । लंदनवाला बनायेगा तो भगवान के चित्र को एकदम गोरा-गोरा बनायेगा । भारतवाला बनायेगा तो गेहुँए वर्ण का बनायेगा । आखिर भगवान वास्तव में कैसे हैं ? वे मनुष्य की बुद्धि से परे हैं । मन को एकाग्र करने के लिए भगवान की मूर्ति तो कल्पित है । गुरु की मूर्ति कल्पित नहीं प्रत्यक्ष है और गुरु का श्रीचित्र कैमरे से लिया गया है । गुरुजी का सत्संग, गुरुजी का चिंतन और मन-ही-मन उनके साथ वार्तालाप करने से उनका स्वभाव और गुण हममें आयेंगे ।ङ्खङ्ख
पूज्य बापूजी के श्रीचित्र के नित्य पूजन-अर्चन तथा श्रीचित्र पर त्राटक करते हुए भावपूर्ण तादात्म्य करने से अनगिनत शिष्यों-भक्तों की बहुआयामी उन्नति हुई है । श्रीचित्र से प्रेरणा मिलना, दिव्य सुगंध आना, जल का बहना जैसे कई दिव्य अनुभव भी भक्तों को होते रहते हैं ।
बापूजी के करकमलों से प्रज्वलित हुई अखंड ज्योति घर-घर जाती है । वहाँ पाठ, सत्संग, भजन-कीर्तन आदि होता है, जिससे वहाँ का माहौल शांत व भक्तिमय बनता है । इन कार्यक्रमों में कई बार लोगों को बापूजी की उपस्थिति का दिव्य अनुभव होता है । मुरादाबाद से प्रज्वलित हुई ज्योति कई गाँवों, शहरों व राज्यों में विस्तृत हो चुकी है । असंख्य शिष्यों-भक्तों को दैवी प्रेरणा मिली है, रोगों-कष्टों से मुक्ति मिली है तथा अनेकों के प्राणों की रक्षा हुई है । लौकिक लाभ हुए हैं व आध्यात्मिक उन्नति भी हुई है ।
REF: RP-323-NOVEMBER-2019
Give a Reply