– पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
मुनि अष्टावक्रजी कहते हैं :
अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा ।
तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः ।।
(अष्टावक्र गीता: 18.51)
जब पुरुष अपने-आपको अकर्ता और अभोक्ता निश्चय कर लेता है अर्थात् अपने अकर्तापने को, अभोक्तापने को जान लेता है, तब उसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्तियाँ निश्चय करके क्षीण यानी शांत हो जाती हैं । उसके दोष दूर हो जाते हैं ।
‘दोष दूर कर लें तब भगवान दया करेगा ।…’ जब हम दोष दूर कर सकते हैं तो भगवान की दया की जरूरत क्या है ? भगवान का आत्मा और हमारा आत्मा तो एक है । हम दोष दूर नहीं कर सकते इसलिए भगवान का चिंतन करते हैं । निर्दोष का चिंतन इसलिए करते हैं कि दोष मिट जायें । निर्दोष का ज्ञान इसलिए सुनते हैं कि जो निर्दोष है उसमें हमारा चित्त ठहरे । निर्दोषं हि समं ब्रह्म… ‘ब्रह्म निर्दोष और सम है ।’ (गीता: 5.19)
वह ब्रह्म-परमात्मा ही निर्दोष है । काया से कोई कितना भी निर्दोष होना चाहे या शुद्ध होना चाहे फिर भी कोई-न-कोई दोष और अशुद्धि रहती है । यदि काया से शुद्ध होने का यत्न करोगे, काया से निर्दोष होने का यत्न करोगे और अगर आप हो भी गये तो अहंकार आ जायेगा कि ‘मैं शुद्ध हूँ’ और ‘मैं निर्दोष हूँ’ तो यह शुद्धि भी टिकेगी नहीं और निर्दोषता भी टिकेगी नहीं ।
एक महात्मा मिले । 22 साल से वे अपना जप-तप करते थे । मुझे बहुत आग्रह करते थे, बोलते थे : ‘‘आप मेरे साथ मिल जाओ । हम लोग प्रचार करेंगे ।’’
मैंने कहा : ‘‘चलो ठीक । तो क्या प्रचार करना है ?’’
बोले : ‘‘लोगों को यह सिखायें कि ऐसी-ऐसी साधना करके अपना रक्त शुद्ध करें, फिर नाड़ियों को शुद्ध करें । फिर मांसपेशियों को शुद्ध करें । फिर सारे शरीर की अस्थियाँ भी शुद्ध हो जायें । बाद में भगवान मिलते हैं ।’’
मैंने कहा : ‘‘महाराज ! कितना भी शुद्ध करेंगे तो भी भोजन तो करना पड़ेगा ?’’
बोले : ‘‘हाँ ।’’
‘‘भोजन करेंगे तो उसकी विष्ठा बननी चाहिए । अगर नहीं बनी तो शरीर टिकेगा नहीं । पानी पियोगे, पवित्र-से-पवित्र जल – गंगाजल पियोगे फिर भी उसका पेशाब बनना चाहिए । तो कितना भी तुम नस-नाड़ियों को, हड्डियों को बदल डालो फिर भी भोजन करोगे तो वही मसाला बनेगा । कितना शुद्ध करोगे ? जहाँ अशुद्धि पहुँचती नहीं उसको प्यार करके अपने शुद्ध स्वरूप को जान लो । ‘शरीर को स्वस्थ रखो, पवित्र रखो…’ यह तो ठीक है ।’’
उनको यह बात नहीं समझ में आयी और वे अपनी मान्यता के अनुसार करते रहे बीसों साल । अंत में बीमारी आयी, खाँसी हुई, कफ हुआ, क्या-क्या हुआ । अब उन बेचारे का स्वर्गवास हो गया ।
जो मरनेवाले को अमर बनाना चाहते हैं, बदलनेवाले को एकरस रखना चाहते हैं, मिटनेवाले को अमिट बनाना चाहते हैं उनकी मेहनत का फल उनकी इच्छा के अनुसार कभी नहीं होता । जो मरनेवाला है उसको मरनेवाला समझो, जो बदलनेवाला है उसको बदलनेवाला समझो, जो अशुद्ध होनेवाला है उसको अशुद्ध होनेवाला समझो और जहाँ मृत्यु पहुँचती नहीं, जहाँ अशुद्धि पहुँचती नहीं, जहाँ बदलाहट पहुँचती नहीं उस अबदल आत्मा को ‘सोऽहम्’स्वरूप से जानकर अभी जनक ! तुम इसी समय निर्दुःख हो जाओ, निर्बंध हो जाओ, निरहंकार हो जाओ । जो कुछ मिला है वह देनेवाले (परमात्मा) का है । उसे देनेवाले का समझकर देनेवाले की प्रसन्नता के लिए उसका सदुपयोग करो; वासनाएँ बढ़ाओ मत, वासनाएँ मिटाओ, अहंकार मिटाओ तो उसके साथ एक हो जाओगे । नहीं तो शरीर का अहंकार, धन का अहंकार, सत्ता का अहंकार कितना ! तुम्हारी सत्ता कितनी !
बोले : ‘महाराज ! मेरी 25 दुकानों पर सत्ता है ।’ तो बाकी पर तो नहीं रहेगी । ‘मेरी पूरे राज्य पर सत्ता है ।’ तो 5 साल के बाद फिर वोट की भीख माँगनी पड़ेगी । ‘मेरी पूरे राष्ट्र पर सत्ता है ।’ तो कइयों की खुशामद करके चलना पड़ेगा । लेकिन तुम्हारी वास्तविक सत्ता देख लो भैया !
पृथ्वी जिस सूर्य का तेरह लाखवाँ हिस्सा है… पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है सूर्य । ऐसा सूरज आकाशगंगा में अत्यंत छोटा है और ऐसी आकाशगंगाएँ कई हैं प्रकृति के एक हिस्से में और प्रकृति उस आकाश से भी सूक्ष्म चिदानंद परमात्मा के एक अंश में है । वही चिदानंद परमात्मा तुम्हारा आत्मा है और फिर तुम अपने को देह मानते हो ! वास्तव में आकाश से भी उस पार तुम व्यापक हो । दुःखों और सुखों का संबंध तुम्हारे मन तक है, गर्मी-सर्दी का संबंध इस तन तक है, मान और अपमान का संबंध अहं तक है, बीमारी और स्वास्थ्य का संबंध तुम्हारे हाड़-मांस तक है लेकिन तुम्हारे तक इनमें से किसीकी पहुँच नहीं है ऐसे तुम अजन्मा, अविनाशी, शुद्ध-बुद्ध, नित्य-मुक्त आत्मा हो । ऐसे अपने अविनाशी स्वरूप को समझ लो बस !
जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ ।
उलटा ज्ञान दोहराते-दोहराते पक्का हो गया है । झूठ का बार-बार चिंतन करने से झूठ सत् लग रहा है और सत् से हम अनजान हैं । सत् है आत्मा; आत्मा सत् है, चित् है, आनंदस्वरूप है । शरीर असत् है, जड़ है और दुःखरूप है । पहले नहीं था और बाद में भी नहीं रहेगा । शरीर का तो यह हाल है । जरा-सी धूल आती है तो ‘खों-खों’ चालू हो जाती है और ‘खों-खों’ न चालू हो तो भी शरीर को मौत तो जरूर आयेगी । जो मिटनेवाला है उसके पीछे जितना लगते हैं उससे आधा, आधे का आधा भी यदि अमिट का ज्ञान पायें, अमिट का ध्यान, अमिट का चिंतन करें और अमिट से प्रेम करें तो वास्तव में आप अमिट हैं और आपको अपने अमिटस्वरूप का अनुभव हो जाय । आप सदा के लिए मुक्त हो जायेंगे ।
तकदे बाजी नूं, बाजीगर नूं कोई नहीं तकदा ।
देखते हैं बाजी को… यह संसार बाजी है, बाजीगर तुम्हारा चैतन्य आत्मा है, ईश्वर है । उस बाजीगर के साथ तुम्हारा अविभाज्य संबंध है, तुम उसके अविभाज्य स्वरूप हो । तुम्हारा अकाट्य संबंध है उस बाजीगर के साथ, जैसे घड़े में आये आकाश का व्यापक आकाश से अविभाज्य संबंध है । केवल घड़े की आकृति दिखती है फिर भी उस घड़े का आकाश और महाकाश आपस में एकमेक है, ऐसे ही यह जीवात्मा और ब्रह्म-परमात्मा वास्तव में एकमेक है । उस एकमेक का चिंतन करो । ज्ञान एक है, वह ज्ञानस्वरूप ईश्वर एक है; दुःख आता है उसको भी वह देख रहा है, सुख आता है उसको भी देख रहा है, बीमारी आती है उसको भी देख रहा है, तंदुरुस्ती आती है उसको भी देख रहा है । ऐसे ही बाल्यावस्था में से किशोरावस्था आयी, किशोरावस्था में से जवानी आयी; जवानी कब चली गयी और बुढ़ापा आ गया, उसको भी कोई देखता है । ऐसे ही मौत को भी देखो, दुःख को भी देखो… तो तुम देखनेवाले हो । दिखनेवाला सब माया है और देखनेवाला आत्मा है, उसका ज्यादा-से-ज्यादा अभ्यास करो ।
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