– पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
ब्रह्मलीन भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज का महानिर्वाण दिवस
गुरुकृपा हि केवलं…
जन्म-जन्म का भटका हुआ जीवात्मा परमात्मा के रस से आनंदित हो जाय, बस यही संत-महापुरुषों की प्रेमभरी कृपा है । माँ की ममताभरी कृपा है, पिता की अनुशासनवाली कृपा है, भगवान का जैसा भजन करो वैसी कृपा है परंतु ब्रह्मवेत्ता संत, सद्गुरु की ऐसी करुणा-कृपा है कि पुचकार के, ऐसे-वैसे करते-करते वे लोगों को ईश्वर के रास्ते चलाते हैं, यही सद्भाव रखकर कि जो मुझे मिला है वह इनको मिल जाय ।
ऐ हे ! मैंने कभी सोचा नहीं था कि मेरे गुरुजी मुझे इतनी ऊँचाई पर पहुँचायेंगे कि मैं बोलूँ और दुनिया के कई-कई देशों में लोग सुनने के लिए वेबसाइट खोलकर बैठ जायें, हजारों-लाखों लोग घंटोंभर बापू के इंतजार में बैठे रहें । मेरे को गुरुजी ऐसा बनायेंगे ऐसा मैं सोच भी नहीं सकता था । मैंने ऐसा बनने की कोई कोशिश भी नहीं की और ऐसा बनने की कोशिश करता तो हो भी नहीं सकता था । यह तो
गुरुकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम् ।
मेरा स्वभाव इतनी प्रवृत्ति से बिल्कुल विपरीत था । गुरुजी जब सत्संग की बात करते, भगवच्चर्चा करते तो मेरी आँखें बंद हो जाती थीं । एक बार गुरुजी ने डाँट लगायी : ‘‘क्या करता है !’’
फिर उसके बाद कभी सत्संग-श्रवण के समय आँखें बंद करके ध्यान नहीं लगाया । देखते-देखते सुनता था । गुरुजी सत्संग में बोलते थे :
‘‘खलक जी खिज़मत खां न भायां बंदगी बेहतर.
जनता की खिज़मत (सेवा) से बढ़कर मैं समाधि को, बंदगी को ऊँचा नहीं मानता हूँ ।’’ ऐसा बोलते-बोलते संस्कार डालते । बोलते भक्तों के सामने फिर मेरे ऊपर दृष्टि डालते । मैं भी समझ जाता कि यह मेरी तरफ इशारा है । ऐसी करुणामयी दृष्टि बरसती, ऐसी-ऐसी बातें आतीं कि क्या बताऊँ !
गुरुदेव के हाथ की प्रसादी
अपौरुषेय ज्ञान में, तत्त्वज्ञान में जो जगे हैं और उसमें जिनकी प्रीति है उन महापुरुषों का दिया हुआ पानी या अन्य कोई प्रसाद चित्त को आत्मानंद की मस्ती से सम्पन्न कर देता है, अंतःकरण में अपौरुषेय तत्त्व चमचमाने लगता है । समझ में नहीं आये तब भी महापुरुष की दी हुई चीज का अनादर नहीं करना चाहिए । हम उनके पास ले जाते हैं तो मिठाई होती है, फल-फूल होता है लेकिन उनके हाथ से जब मिठाई का टुकड़ा मिल गया तो आपके 100 रुपये की मिठाई से भी वह ज्यादा कीमती हो जाता है । वह मिठाई नहीं रही, अब महाप्रसाद हो गया, शुभ भाव हो गया, महासंकल्प हो गया । अन्य लोग बोलते हैं तो भाषण है, प्रवचन है परंतु गुरु बोलते हैं तो सत्संग है, भगवत्प्रसाद है और उस प्रसाद से सारे दुःखों का अंत करनेवाली मति बनती है देर-सवेर ।
मैंने मेरे जीवन में मेरे गुरुदेव के हाथ की प्रसादी का बहुत बार अनुभव किया । लोग सेवफल दे जाते थे । एक बार रात्रि को 10ः30-11 बजे हम विदा ले रहे थे । गुरुदेव ने देखा कि अब कहाँ खायेगा-पियेगा तो उठाकर 3-4 सेव दे दिये, बोले : ‘‘भई ! दूर जायेगा, अब खाने-पीने का ये ही ले ले ।’’ हमने झोली में ले लिये ।
जो गाड़ीवाला अपनी जीप से मुझे छोड़ने आया था उसे मैंने गुरुदेव के दिये हुए सेवफल में से एक सेवफल दे दिया । वह उसे खाने लगा । फिर मैंने जब खाया तो गुरु का दिया हुआ जो प्रसाद था – सेवफल वह मुँह में डालते ही क्या तूफान, क्या मस्ती, क्या आनंद, क्या ब्राह्मी स्थिति के सुख की झलकें !… जो निर्विषय सुख होता है उसके लवलेश से सारी दुनिया सुख की झलकें पाती रहती है । मैंने मन में सोचा कि ‘अब इसके हाथ का जूठा सेव कैसे छीनूँ ? मैंने गलती कर दी ।’ गुरुजी द्वारा स्पर्शित प्रसाद की महिमा का क्या वर्णन करूँ !
REF: ISSUE371-NOVEMBER-2023
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