(पूज्य बापूजी का अवतरण दिवस : 21 अप्रैल)
मेरा जन्मदिवस-उत्सव आप मनाते हैं लेकिन यह समझना भी आवश्यक है कि मेरा और आपका अनादि काल से कई बार जन्म हुआ है । भगवान अपने प्रिय अर्जुन को कहते हैं :
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।।
‘हे परंतप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं । उन सबको तू नहीं जानता किंतु मैं जानता हूँ ।’
(गीता : 4.5)
जीव क्यों नहीं जानता है ? क्योंकि जीव नश्वर वस्तुओं का संग्रह करने और उनसे सुख लेने के लिए जो चिंतन करता है उससे उसकी मति व वृत्ति स्थूल हो गयी है । इसलिए वह अपने जन्मों को नहीं जानता है और ईश्वर अपने अवतारों को जानते हैं क्योंकि ईश्वर में विषय-विलास से सुख लेने की मति व वृत्ति नहीं है । ईश्वर को अपने आत्मस्वरूप का भान रहता है । ‘जो जन्मता है, बढ़ता है, बूढ़ा होता है और मर जाता है वह मेरा शरीर है ।’ – ऐसा जिन सत्पुरुषों को अनुभव होता है वे भी अपने शरीर के जन्म को एक निमित्तमात्र बनाते हैं, अपने वास्तविक स्वरूप को जानते हैं । ऐसे पुरुष भगवान के उस रहस्य को समझकर अपने अखंड स्वभाव में जगे रहते हैं ।
जयंतियाँ क्यों मनायी जाती हैं ?
व्रत, उपवास तन-मन के शोधन के लिए किये जाते हैं । पर्व और उत्सव अपनी सूक्ष्म क्षमताओं के आड़े आनेवाले विघ्न-बाधाओं को, हताशा-निराशाओं को दूर हटाने और अपनी दिव्यता के संकेत को पाने के लिए मनाये जाते हैं । जयंतियाँ मनाने के पीछे यह उद्देश्य है कि इनके द्वारा वांछनीय उमंगों, भावनाओं, आत्मविश्रांति व उन्नत ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो, वांछनीय दृष्टि प्राप्त हो और अवांछनीय आदतें, माँगें निकालने की हिम्मत बढ़ जाय तथा अवांछनीय दृष्टि बदल जाय । फिर चाहे भगवान श्रीरामजी की, भगवान श्रीकृष्ण की, महात्मा बुद्ध की, गुरु नानकजी की, साँईं लीलाशाहजी की या चाहे किन्हीं सत्पुरुष की जयंती मनाओ ।
जो शुद्ध-बुद्ध, निरंजन-निराकार परमात्मा है उसको अवतरित करने के लिए वातावरण बनाना पड़ता है । हजारों-हजारों चित्त जब शुभकामना करते हैं और मार्गदर्शन चाहते हैं तब वह सच्चिदानंद जिस अंतःकरण में विशेषरूप से अवतरित होता है उसे अवतार कहते हैं । बाकी तो परमात्मा राम बनकर आये, कृष्ण बन के आये तो श्रोता या पाठक बन के भी वही परमात्मा बैठा है, यह बात भी उतनी ही सच्ची है ।
कीड़ी में नानो बन बेठो हाथी में तू मोटो क्यूँ ?
बन महावत ने माथे बेठो हांकणवाळो तू को तू ।।…
ऐसो खेल रच्यो मेरे दाता ज्याँ देखूं वाँ तू को तू ।।
अनादि काल से सृष्टि चली आ रही है, राम थे तब भी तुम थे, कृष्ण थे तब भी तुम थे, सृष्टि के आदि में तुम थे, मध्य में तुम थे, अब भी तुम हो और प्रलय हो जायेगा तब भी तुम्हारा नाश नहीं होता है, वास्तव में तुम वह परब्रह्म-परमात्मा का सनातन स्वरूप हो । इस समझ को उभारने का अवसर मिले, इसका अनुभव करने का साधन मिले इसलिए जयंतियाँ मनायी जाती हैं ।
वे देर-सवेर विजयी हो जाते हैं
इन जयंतियों, सत्संगों, पर्व-उत्सवों के द्वारा साहसी आगे बढ़ते हैं । पराक्रमी सफल होते हैं । अकेला साहस जगाकर बैठें नहीं, पुरुषार्थ भी करें, पराक्रम करें । जो प्रतिकूलताओं से दबते नहीं, उनके साथ समझौता नहीं करते और उन्हें देखकर अपने चित्त को परेशान नहीं करते हैं बल्कि ‘महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, झूलेलालजी, साँईं लीलाशाहजी महाराज, श्रीकृष्ण और श्रीराम में जो चैतन्य रम रहा था वही चैतन्य मेरा आत्मा है’ – ऐसा सोच के पग आगे रखते हैं वे देर-सवेर विजयी हो जाते हैं ।
यह विवेक करने का दिवस है
जन्मदिवस बधाई हो !… वास्तव में यह दिवस विवेक करने का दिवस है । किसीकी 70 वर्ष उम्र हो गयी तो सोचे कि ‘70 साल कैसे गये, उनमें क्या गलती हो गयी अथवा क्या अहंता आ गयी ?… अब 71वाँ साल आता है, उसमें यह गलती और अहंता न आये ।’ इस प्रकार सोचते हैं तो दिव्यता की तरफ यात्रा होती है लेकिन ‘मैं इतना धन कमाऊँगा, ऐसा करूँगा, ऐसा बन के दिखाऊँगा…’ ऐसा सोचते हैं तो यह न जन्म दिव्य है न कर्म दिव्य है । ये अपने को उलझानेवाली योजनाएँ हैं । श्रीकृष्ण के दृष्टिकोण से आप तत्परता से कर्म करें लेकिन कर्तृत्व भाव, भोक्तृत्व भाव, फल-लोलुपता, फलाकांक्षा आदि नहीं रखें तो अनुभव हो जायेगा कि
असङ्गो ह्ययं पुरुषः ।
‘मैं इन सब परिस्थितियों से असंग, ज्ञानस्वरूप, प्रकाशमात्र, चैतन्यस्वरूप, आनंदस्वरूप हूँ…’ – इस प्रकार भगवान अपने स्वतःस्फुरित, स्वतःसिद्ध स्वभाव को जानते हैं, ऐसे ही आप भी अपने स्वतःसिद्ध स्वभाव को जान लें तो आपका जन्म और कर्म दिव्य हो जायेंगे ।
Ref: ISSUE327-March-2020
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