
आत्म साक्षात्कार
धरती पर तो रोज करीब डेढ़ करोड़ लोगों का जन्मदिन होता है । शादी-दिवस और प्रमोशन दिवस भी लाखों लोगों का हो सकता है । शपथ-दिवस भी कई नेताओं का हो सकता है । ईश्वर के दर्शन का दिवस भी दर्जनों भक्तों का हो सकता है लेकिन ईश्वर साक्षात्कार दिवस तो कभी-कभी और कहीं-कहीं किसी-किसी विरले का देखने को मिलता है । हे मनुष्य ! तू भी उस सत्स्वरूप परमात्मा के साक्षात्कार का लक्ष्य बना । वह कोई कठिन नहीं है, बस उससे प्रीति हो जाए ।
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ।।
‘हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्त्व से अर्थात् यथार्थरूप से जानता है ।’ (गीता : 7.3)
(पूज्य संत श्री आशारामजी बापू का 59वाँ आत्मसाक्षात्कार दिवस: 27 सितम्बर)
सबकी माँग का नाम है आत्मसाक्षात्कार
कितना भी धन मिल जाय, सत्ता मिल जाय, कितनी भी अप्सराएँ मिल जायें अथवा कुछ भी मिल जाय तो भी सच्चे सुख की प्यास दब सकती है, बुझ नहीं सकती । कितना भी बाहर का सुख आ जाय लेकिन आत्मसाक्षात्कार के सुख की प्यास सभीके अंदर छुपी है । आपको कितना भी धन मिल जाय, कितना भी अनुकूल पति या पत्नी मिल जाय, कितना भी यश मिल जाय फिर भी आप और सुखी होने की कोशिश करोगे । तो जो परम सुख है उसका नाम है आत्मसाक्षात्कार ! परम सुख, परम ज्ञान, परम सामर्थ्य का अनुभव, परब्रह्म-परमात्मा और अपने आत्मा के मिलन के दिवस का नाम है आत्मसाक्षात्कार दिवस । कैसा होता है बताया नहीं जाता (वर्णन में नहीं आता) ।
युग बदले, सत्त्वगुण में रजोगुण बढ़ा, फिर युग बदला तो तमस का अंश बढ़ा । कई लोग ऐसे ही ब्रह्मज्ञानी होने की घोषणा कर देते थे और कई लोग ब्रह्मज्ञानियों को अपनी मति-गति के अनुसार तौलते, फिर उनकी खोपड़ीरूपी तगड़ी (तराजू) डोलने लग जाती । तो सयाने ब्रह्मवेत्ताओं ने निर्णय किया कि अब रजो-तमोगुण से लोगों की मति-गति देह में आ गयी और बाहर के जगत में ब्रह्मज्ञानी को तत्त्वरूप से पहचानने की मति अब न रही । उस मति के न होने का प्रमाण भगवान श्रीकृष्ण का यह वचन देता है :