
मंत्रदीक्षा
गुरु मंत्रदीक्षा के द्वार शिष्य की सुषुप्त शक्ति को जगाते हैं | दीक्षा का अर्थ है: ‘दी’ अर्थात जो दिया जाय, जो ईश्वरीय प्रसाद देने की योग्यता रखते हैं तथा ‘क्षा’ अर्थात जो पचाया जाय या जो पचाने की योग्यता रखता है | पचानेवाले साधक की योग्यता तथा देनेवाले गुरु का अनुग्रह, इन दोनों का जब मेल होता है, तब दीक्षा सम्पन्न होती है |
गुरु मंत्र दीक्षा देते हैं तो साथ-साथ अपनी चैतन्य शक्ति भी शिष्य को देते हैं | किसान अपने खेत में बीज बो देता है तो अनजान आदमी यह नहीं कह सकता कि बीज बोया हुआ है या नहीं | परन्तु जब धीरे-धीरे खेत की सिंचाई होती है, उसकी सुरक्षा की जाती है, तब बीज में से अंकुर फूट निकलते हैं और तब सबको पता चलता है कि खेत में बुवाई हुई है | ऐसे ही मंत्र दीक्षा के समय हमें जो मिलता है, वह पता नहीं चलता कि क्या मिला, परन्तु जब हम साधन-भजन से उसे सींचते हैं तब मंत्र दीक्षा का जो प्रसाद है, बीजरूप में जो आशीर्वाद मिला है, वह पनपता है |
श्री गुरुदेव की कृपा और शिष्य की श्रद्धा, इन दो पवित्र धाराओं का संगम ही दीक्षा है |गुरु का आत्मदान और शिष्य का आत्मसमर्पण, एक की कृपा व दूसरे की श्रद्धा के मेल से ही दीक्षा संपन्न होती है | दान और क्षेप, यही दीक्षा है | ज्ञान, शक्ति व सिद्धि का दान और अज्ञान, पाप और दरिद्रता का क्षय, इसी का नाम दीक्षा है |
सभी साधकों के लिये यह दीक्षा अनिवार्य है |चाहे जन्मों की देर लगे, परन्तु जब तक ऐसी दीक्षा नहीं होगी तब तक सिद्धि का मार्ग रुका ही रहेगा |
यद समस्त साधकों का अधिकार एक होता, यदि साधनाएँ बहुत नहीं होतीं और सिद्धियों के बहुत-से-स्तर न होते तो यह भी सम्भव था कि बिना दीक्षा के ही परमार्थ प्राप्ति हो जाती | परंतु ऐसा नहीं है | इस मनुष्य शरीर में कोई पशु-योनी से आया है और कोई देव-योनी से, कोई पूर्व जन्म में साधना-संपन्न होकर आया है और कोई सीधे नरककुण्ड से, किसी का मन सुप्त है और किसी का जाग्रत | ऐसी स्थिति में सबके लिये एक मंत्र, एक देवता और एक प्रकार की ध्यान-प्रणाली हो ही नहीं सकती |
यह सत्य है कि सिद्ध, साधक, मंत्र और देवताओं के रूप में एक ही भगवान प्रकट हैं | फिर भी किस हृदय में, किस देवता और मंत्र के रूप में उनकी स्फूर्ति सहज है-
यह जानकर उनको उसी रूप में स्फुरित करना, यह दीक्षा की विधि है |दीक्षा एक दृष्टि से गुरु की ओर आत्मदान, ज्ञानसंचार अथवा शक्तिपात है तो दूसरी दृष्टि से शिष्य में सुषुप्त ज्ञान और शक्तियों का उदबोधन है | दीक्षा से हृदयस्थ सुप्त शक्ति के जागरण में बड़ी सहायता मिलती है
और यही कारण है कि कभी-कभी तो जिनके चित्त में बड़ी भक्ति है, व्याकुलता और सरल विश्वास है, वे भी भगवत्कृपा का उतना अनुभव नहीं कर पाते जितना कि शिष्य को दीक्षा से होता है |
दीक्षा बहुत बार नहीं होती क्योंकि एक बार रास्ता पकड़ लेने पर आगे के स्थान स्वयं ही आते रहते हैं | पहली भूमिका स्वयं ही दूसरी भूमिका के रूप में पर्यवसित होती है |
साधना का अनुष्ठान क्रमशः हृदय को शुद्ध करता है और उसीके अनुसार सिद्धियों का और ज्ञान का उदय होता जाता है | ज्ञान की पूर्णता साधना की पूर्णता है |
शिष्य के अधिकार-भेद से ही मंत्र और देवता का भेद होता है जैसे कुशल वैद्य रोग का निर्णय होने के बाद ही औषध का प्रयोग करते हैं | रोगनिर्णय के बिना औषध का प्रयोग निरर्थक है | वैसे ही साधक के लिए मंत्र और देवता के निर्णय में भी होता है |
यदि रोग का निर्णय ठीक हो, औषध और उसका व्यवहार नियमित रूप से हो, रोगी कुपथ्य न करे तो औषध का फल प्रत्यक्ष देखा जाता है | इसी प्रकार साधक के लिए उसके पूर्वजन्म की साधनाएँ, उसके संस्कार, उसकी
वर्त्तमान वासनाएँ जानकर उसके अनुकूल मंत्र तथा देवता का निर्णय किया जाय और साधक उन नियमों का पालन करे तो वह बहुत थोड़े परिश्रम से और बहुत शीघ्र ही सिद्धिलाभ कर सकता है |
मंत्र दीक्षा के प्रकार
दीक्षा तीन प्रकार की होती है:
मांत्रिक शांभवी और स्पर्श
जब मंत्र बोलकर शिष्य को सुनाया जाता है तो वह होती है मांत्रिक दीक्षा |
निगाहों से दी जानेवाली दीक्षा शांभवी दीक्षा कहलाती है |
जब शिष्य के किसी भी केन्द्र को स्पर्श करके उसकी कुण्डलिनी शक्ति जगायी जाती है तो उसे स्पर्श दीक्षा कहते हैं |
शुकदेवजी महाराज ने पाँचवें दिन परिक्षित पर अपनी दृष्टि से कृपा बरसायी और परिक्षित को ऐसा दिव्य अनुभव हुआ कि वे अपनी भूख- स तक भूल गये | गुरु के वचनों से उन्हें बड़ी तृप्ति मिली |
शुकदेवजी महाराज समझ गये कि सत्पात्र ने कृपा पचायी है | सातवें दिन शुकदेवजी महारज ने परिक्षित को स्पर्श दीक्षा भी दे दी और परिक्षित को पूर्ण शांति की अनुभूति हो गयी |
कुलार्णवतंत्र में तीन प्रकार की दीक्षाओं का इस प्रकार वर्णन है:
स्पर्शदीक्षा:
यथा पक्षी स्वपक्षाभ्यां शिशून्संवर्धयेच्छनैः |
स्पर्शदीक्षोपदेशस्तु तादृशः कथितः प्रिये ||
‘स्पर्शदीक्षा उसी प्रकार की है जिस प्रकार पक्षिणी अपने पंखों से स्पर्श से अपने बच्चों का लालन-पालन-वर्द्धन करती है |’
जब तक बच्चा अण्डे से बाहर नहीं निकलता तब तक पक्षिणी अण्डे पर बैठती है और अण्डे से बाहर निकलने के बाद जब तक बच्चा छोटा होता है तब तक उसे वह अपने पंखों से ढ़ाँके रहती है |
दृग्दीक्षा:
स्वपत्यानि यथा कूर्मी वीक्षणेनैव पोष्येत् |
दृग्दीक्षाख्योपदेशस्तु तादृशः कथितः प्रिये ||
‘दृग्दीक्षा उसी प्रकार की है जिस प्रकार कछवी दृष्टिमात्र से अपने बच्चों का पोषण करती है |’
ध्यानदीक्षा:
यथा मत्सी स्वतनयान् ध्यानमात्रेण पोषयेत् |
वेधदीक्षापदेशस्तु मनसः स्यात्तथाविधाः ||
ध्यानदीक्षा मन से होती है और उसी प्रकार होती है जिस प्रकार मछली अपने बच्चों को ध्यानमात्र से पोसती है |’
पक्षिणी, कछवी और मछली के समान ही श्रीसदगुरु अपने स्पर्श से, दृष्टि से तथा संकल्प से शिष्य में अपनी शक्ति का संचार करके उसकी अविद्या का नाश करते हैं और महावाक्य के उपदेश से उसे कृतार्थ कर देते हैं |
स्पर्श, दृष्टि और संकल्प के अतिरिक्त एक ‘शब्ददीक्षा’ भी होती है | इस प्रकार चतुर्विध दीक्षा है और उसका क्रा आगे लिखे अनुसार है :
विद्धि स्थूलं सूक्षमं सूक्ष्मतरं सूक्ष्मतममपि क्रमतः |
स्पर्शनभाषणदर्शनसंकल्पनजत्वतश्च्तुर्धा तम् ||
‘स्पर्श, भाषण, दर्शन, संकल्प – यह चार प्रकार की दीक्षा क्रम से स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम है |’
इस प्रकार दीक्षा पाये हुए शिष्यों में कोई ऐसे होते हैं, जोदूसरों को वही दीक्षा देकर कृतार्थ कर सकते हैं और कोई केवल स्वयं कृतार्थ होते हैं, परन्तु दूसरों को शक्तिपात करके कृतार्थ नहीं सकते |
साम्यं तु शक्तिपाते गुरुवत्स्वस्यापि सामर्थ्यम् |
चार प्रकार की दीक्षा में गुरुसाम्यासाम्य कैसा होता है, यह आगे बतलाते हैं :
स्पर्श:
स्थूलं ज्ञानं द्विविधं गुरुसाम्यासाम्यद्वत्वभेदेन |
दीपप्रस्तरयोरिव संस्पर्शात्स्निग्धवर्त्ययसोः ||
किसी जलते हुए दीपक से किसी दूसरे दीपक की घृताक्त या तैलाक्त बत्ती को स्पर्श करते ही वह बत्ती जल उठती है, फिर यह दूसरी जलती हुई बत्ती चाहे किसी भी अन्य स्निग्ध बत्ती को अपने स्पर्श से प्रज्वलित कर सकती है | यह शक्ति उसे प्राप्त हो गयी | यही शक्ति इस
प्रकार प्रज्वलित सभी दीपों को प्राप्त है | इसीको परम्परा कहते हैं | दूसरा उदाहरण पारस है | पारस के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है, परन्तु इस सोने में यह सामर्थ्य नहीं होता कि वह दूसरे किसी लोहखण्ड को अपने स्पर्श से सोना बना सके | साम्यदान करने की शक्ति उसमें नहीं होती अर्थात परम्परा आगे नहीं बनी रहती |
शब्दः
तद्वद् द्विविधं सूक्ष्मं शब्दश्रवणेन कोकिलाम्बुदयोः |
तत्सुतमयूरयोरिव तद्वज्ञेयं यथासंख्यम् ||
कौओं के बीच में पला हुआ कोयल का बच्चा कोयल का शब्द सुनते ही यह जान जाता है क मैं कोयल हूँ | फिर अपने शब्द से यही बोध उत्पन्न करने की शक्ति भी उसमें आ जाती है |
मेघ का शब्द सुनकर मोर आनन्द से नाच उठता है, पर यही आनन्द दूसरे को देने का सामर्थ्य मोर के शब्द में नहीं आता |
दृष्टि:
इत्थं सूक्ष्मतरमपि द्विविधं कूर्म्या निरीक्षणात्तस्याः |
पुत्र्यास्तथैव सवितुर्निरीक्षणात्कोकमिथुनस्य ||
कछवी के दृष्टि निक्षेपमात्र से उसके बच्चे निहाल हो जाते हैं और फिर यही शक्तिपात उन बच्चों को भी प्राप्त होती है | इसी प्रकार सदगुरु के करुणामय दृष्टिपात से शिष्य में ज्ञान का उदय हो जाता है
और फिर उसी प्रकार की करुणामय दृष्टिपात से अन्य अधिकारियों में भी ज्ञान उदय कराने की शक्ति उस शिष्य में भी आ जाती है | परन्तु चकवा-चकवी को सूर्यदर्शन से जो आनन्द प्राप्त होता है, वही आनन्द वे अपने दर्शन के द्वारा दूसरे चकवा-चकवी के जोड़ों को नहीं प्राप्त करा सकते |
संकल्पः
सूक्ष्मतमपि द्विविधं मत्स्याः संकल्पतस्तु तद्युहितुः |
तृप्तिर्नगरादिजनिर्मान्त्रिकसंकल्पतश्च भुवि तद्वत ||
मछली के संकल्प से उसके बच्चे निहाल होते हैं और इसी प्रकार संकल्पमात्र से अपने बच्चों को निहाल करने सामर्थ्य फिर उन बच्चों को भी
प्राप्त हो जाता है | परन्तु आंत्रिक अपने संकल्प से जिन वस्तुओं का निर्माण करता है, उन वस्तुओं में वह संकल्पशक्ति उत्पन्न नहीं होती |
इन सब बातों का निष्कर्ष यह है कि सदगुरु अपनी सारी शक्ति एक क्षण में अपने शिष्य को दे सकते हैं |
यही बात परम भगवदभक्त संत तुकारामजी अपने अभंग में इस प्रकार कहते हैं:
“सदगुरु बिना रास्ता नहीं मिलता, इसलिए सब काम छोड़कर पहले उनके चरण पकड़ लो | वे तुरंत शरणागत को अपने जैसा बना लेते हैं | इसमें उन्हें जरा भी देर नहीं लगती |”
गुरुकृपा से जब शक्ति प्रबुद्ध हो उठती है, तब साधक को आसन, प्राणायाम, मुद्र आदि करने की आवश्यकता नहीं होती | प्रबुद्ध कुण्डलिनी ऊपर ब्रह्मरन्ध की ओर जाने के लिए छटपटाने लगती है | उसके इस छटपटाने में जो कुछ क्रियाएँ अपने-आप होती हैं, वे ही आसन, मुद्र, बन्ध और प्राणयाम हैं | शक्ति का मार्ग खुल जाने के बाद सब क्रियाएँ अपने-आप होती हैं और उनसे चित्त को अधिकाधिक स्थिरता प्राप्त होती है | ऐसे साधक देखे गये हैं, जिन्होंने कभी स्वप्न में भी आसन-प्राणयामादि का कोई विष्य नहीं जाना थ, न ग्रन्थों में देखा था, न किसीसे कोई क्रिया ही सीखी थी, पर जब उनमें शक्तिपात हुआ तब वे इन सब क्रियाओं को अन्तःस्फूर्ति से ऐसे करने लगे जैसे अनेक वर्षों का अभ्यास हो | योगशास्त्र में वर्णित विधि के अन्नुसार इन सब क्रियाओ। का उनके द्वारा अपने-आप होना देखकर बड़ा ही आश्चर्य होता है | जिस साधक के द्वारा जिस क्रिया का होना आवश्यक है, वही क्रिया उसके द्वारा होती है, अन्य नहीं | जिन क्रियाओं के करने में अन्य साधकों को बहुत काल कठोर अभ्यास करना पड़ता है, उन आसनादि क्रियाओं को शक्तिपात से युक्त साधक अनायास कर सकते हैं | यथावश्यक रूप से प्राणयाम भी होने लगता है और दस-पन्द्रह दिन की अवधि के अन्दर दो-दो मिनट का कुम्भक अनायास होने लगता है | इस प्रकार होनेवाली यौगिक क्रियाओं से साधक को कोई कष्ट नहीं होता, किसी अनिष्ट के भय का कोई कारण नहीं रहता, क्योंकि प्रबुद्ध शक्ति स्वयं ही ये सब क्रियाएँ साधक से उसकी प्रकृति से अनुरूप करा लिया करती है | अन्यथा हठयोग से साधन में जरा सी भी त्रुटि होने पर बहुत बड़ी हानि होने का भय रहता है | जैसा कि ‘हठयोगप्रदीपिका’ ने ‘आयुक्ता-भ्यासयोगेन सर्वरोगसमुदभवः’ यह कह कर चेता दिया है, परन्तु शक्तिपात से प्रबुद्ध होने वाली शक्ति के द्वारा साधक को जो क्रियाएँ होती हैं, उनसे शरीर रोग रहित होता है, बड़े-बड़े असाध्य रोग भी भस्म हो जाते हैं |
इससे गृहस्थ साधक बहुत लाभ उठा सकते हैं | अन्य साधनों के अभ्यास में तो भविष्य में कभी मिलनेवाले सुख की आशा से पहले कष्ट-ही-कष्ट उठाने पड़ते हैं, परन्तु इस साधन में आरम्भ से ही सुख की अनुभूति होने लगती है |
शक्ति का जागना जहाँ एक बार हुआ कि फ्र वह शक्ति स्वयं ही साधक को परमपद की प्राप्ति कराने तक अपना काम करती रहती है |
इस बीच साधक के जितने भी जन्म बीत जायें, एक बार जागी हुई कुण्डलिनी श्कति फिर कभी सुप्त नहीं होती है |
दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात साधक अपने पुरुषार्थ से कोई भी यौगिक क्रिया नहीं कर सकता, न इसमें उसका मन ही लग सकता है | शक्ति स्वयं अंदर से जो स्फूर्ति प्रदान करती है, उसी के अनुसार साधक को सब क्रियाएँ होती रहती हैं | यदि उसके अनुसार वह न करे अथवा उसका विरोध करे तो उसका चित्त स्वस्थ नहीं रह सकता, ठीक वैसे ही जैसे नींद आने पर भी जागनेवाला मनुष्य अस्वस्थ होता है | साधक को शक्ति के आधीन होकर रहना होता है | शक्ति ही उसे जहाँ जब ले जाय, उसे जाना होता है और उसीमें संतोष करना होता है | एक जीवन में इस प्रकार कहाँ-से-कहाँ तक उसकी प्रगति होगी, इसका पहले से कोई निश्चय या अनुमान नहीं किया जा सकता | शक्ति ही उसका भार वहन करती है और शक्ति किसी प्रकार उसकी हानि न कर उसका कल्याण ही करती रहती है |
योगाभ्यास की इच्छा करनेवालों के लिए इस काल में शक्तिपात जैसा सुगम साधन अन्य कोई नहीं है | इसलिए ऐसे शक्तिसम्पन्न गुरु जब सौभाग्य से किसीको प्राप्त हों तब उसे चाहिए कि ऐसे गुरु का कृपाप्रसाद प्राप्त करे | इस प्रकार अपने कर्त्त्व्यों का पलन करते हुए ईश्वरप्रसाद का लाभ प्राप्त करके कृतकृत्य होने के लिए साधक को सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए |
गुरु में विश्वास
गुरुत्यागाद् भवेन्मृत्युर्मंत्रत्यागाद्यरिद्रता |
गुरुमंत्रपरित्यागी रैरवं नरकं व्रजेत् ||
‘गुरु का त्याग करने से मृत्यु होती है, मंत्र को छोड़ने से द्ररिद्रता आती है और गुरु व मंत्र क त्याग करने से रौरव नरक मिलता है |’
एक बार सदगुरु करके फिर उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता | जो हमारे जीवन की व्यवस्था करना जानते हैं, ऐसे आत्मवेत्ता, श्रोतिय, ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु होते हैं | ऐसे महापुरुष अगर हमें मिल जायें तो फिर कहना ही क्या ?
जैसे, उत्तम पतिव्रता स्त्री अपने पति के सिवाय दूसरे किसीको पुरुष नहीं मानती | मध्यम पतिव्रता स्त्री बडों को पिता के समान, छोटों को अपने बच्चों के समान और बराबरी वालों को अपने भाई के समान मानती है किन्तु पति तो उसे धरती पर एक ही दिखता है | ऐसे ही सतशिष्य को धरती पर सदगुरु तो एक ही दिखते हैं | फिर भले सदगुरु के अलावा अन्य कोई ब्रह्मनिष्ठ संत मिल जायें घाटवाले बाबा जैसे, उनका आदर जरूर करेंगें किन्तु उनके लिए सदगुरु तो एक ही होते हैं |
पार्वतीजी से कहा गया: “तुम क्यों भभूतधारी, श्मशानवासी शिवजी के लिए इतना तप कर रही हो ? भगवान नारायण के वैभव को देखो, उनकी प्रसन्नता को देखो | ऐसे वर को पाकर तुम्हारा जीवन धन्य हो उठेगा |”
तब पार्वतीजी ने कहा: “आप मुझे पहले मिल गये होते तो शायद, मैंने आपकी बात पर विचार किया होता | अब तो मैं ऐसा सोच भी नहीं सकती | मैंने तो मन से शिवजी को ही पति के रूप में वर लिया है |
“शिवजी तो आयेंगे ही नहीं, कुछ सुनेंगें भी नहीं, तुम तपस्या करते-करते मर जाओगी | फिर भी कुछ नहीं होगा |
पार्वतीजी बोलीं: “इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में | करोड़ जन्म लेकर भी मैं पाऊँगी तो शिवजी को ही पाऊँगी |”
कोटि जनम लगि रगर हमारी |
बरऊँ संभू न तो रहौउँ कुमारी ||
साधक को भी एक बार सदगुरु से मंत्र मिल गया तो फिर अटल होकर लगे रहना चाहिए |