पूज्य संत श्री आशारामजी बापू का 57वाँ आत्मसाक्षात्कार दिवस : 27 सितम्बर
– पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
जैसे दिवाली की शुभकामनाएँ या बधाइयाँ देते हैं अथवा कोई उत्सव-पर्व होता है ऐसे आत्मसाक्षात्कार दिवस सामाजिक उत्सवों में नहीं आता, धार्मिक पर्वों में भी नहीं आता । संतों का प्राकट्य दिवस, निर्वाण दिवस मनाया जाता है, देखा-सुना गया है परंतु यह घटना तो जीवन में कभी-कभी कहीं-कहीं घटती है इसलिए इसको मनाने की परम्परा भी कहीं देखी-सुनी नहीं गयी । जन्म और निर्वाण सभी शरीरों का होता है किंतु आत्मसाक्षात्कार… भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं :
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
हजारों मनुष्यों में कोई वास्तव में ईश्वर की तरफ, सिद्धि की तरफ चलता है । नहीं तो संसार की समस्या न आये अथवा समस्याओं का समाधान हो जाय इसीलिए लोग ईश्वर, अल्लाह, गॉड की तरफ चलते हैं । नौकरी-धंधा बना रहे, इज्जत बनी रहे, मरने के बाद अपने को अच्छा रहे इसी इरादे से धार्मिकता चल रही है । कोई-कोई विरला होगा तो बोलेगा : ‘भगवान का दर्शन हो ।’
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ।। (गीता : 7.3)
ऐसे कई-कई सिद्ध, जो अंतःकरण की शुद्धि, सत्यसंकल्प-सामर्थ्य, अणिमा-गरिमा-लघिमा आदि सिद्धियों की यात्रा तो करते हैं परंतु उनमें भी कोई विरले ही तत्त्व को पाते हैं ।
जैसे हनुमानजी ने श्रीरामजी से, श्री रामकृष्ण परमहंस ने तोतापुरीजी से, विवेकानंदजी ने श्री रामकृष्ण परमहंस से, नामदेवजी ने संत विसोबाजी से तथा साँईं लीलाशाहजी ने स्वामी केशवानंदजी से तत्त्वज्ञान पाया और उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ । ऐसे ही लीलाशाह प्रभुजी की कृपा से आसुमल को आत्मसाक्षात्कार हुआ और आसुमल से आशाराम हो गये ।
आत्मसाक्षात्कार की पावन घड़ियाँ
हम गुरु की खोज करते-कराते नैनीताल पहुँचे । वहाँ जो वरिष्ठ-कनिष्ठ (ीशपळेी-र्क्षीपळेी) का होता है, हुआ । हमारे प्रति बरसती गुरुदेव की कृपा देखकर वरिष्ठ ने दूसरों को अपने पक्ष में ले के हमें भगाने की कोशिशें कीं । गुरुजी दूरद्रष्टा थे परंतु बाकी लोग बोलते कि ‘शादीशुदा लड़का अपनी पत्नी छोड़ के इधर आकर रहे तो समाज में नाम खराब होगा, यह होगा, वह होगा… ।’
भगानेवालों के कहने से गुरुजी ने आज्ञा दी थी : ‘‘जाओ, घर पर जा के ध्यान-भजन करना ।’’ गुरुजी की आज्ञा मानकर घर आये । घर के राजसी वातावरण में कहाँ ध्यान-भजन होवे ! 13 दिन में ही घर से चले, नर्मदा-किनारे 40 दिन का अनुष्ठान किया फिर आसोज सुद दूज (आश्विन शुक्ल द्वितीया) को 11 बजे वज्रेश्वरी (मुंबई) पहुँच गये । गुरुजी घूमने निकले थे, बोले : ‘‘अच्छा ! आ गया । भगवान सब ठीक करेगा ।’’
अब ‘भगवान ठीक करेगा’ का अर्थ क्या… उस समय पता ही नहीं था कि जो भी भगवान हैं वे सब ब्रह्मवेत्ताओं के पैदा किये हुए हैं, ब्रह्मवेत्ताओं के मानसपुत्र हैं ।
नहाये-धोये, नियम-भोजन किया । ढाई बजने के कुछ मिनट पहले गुरुजी का सेवक आया, बोला : ‘‘साँईं बुला रहे हैं ।’’ तो दौड़ के गये । उसीको पंचदशी पढ़ने को दी जो मुझे भगाने के लिए प्रयास करता था । गुरुजी ने हमको इशारा किया कि सुनना ।
वह पढ़ता जाय । मैं उधर सुनूँ और साँईं ने बैठे-बैठे यूँ दृष्टि डाली, फिर तो महाराज ! सुनना-वुनना क्या है, ऐ क्या-क्या… ऐसा आनंद… ऐसी अनुभूति… देखा कि शास्त्र तो मेरी ही महिमा गा रहे हैं ! अब वहाँ वाणी नहीं जाती । ढाई दिन तक तो ऐसी मस्ती-मस्ती… कल्पनातीत, गुणातीत, देशातीत, कालातीत…
आसोज सुद दो दिवस, संवत् बीस इक्कीस ।
मध्याह्न ढाई बजे, मिला ईस से ईस ।।
जीव से ईश्वर नहीं मिला, ईश से ईश मिला । भ्रांति चली गयी । मोहन सोहन से नहीं मिला, मोहन मोहन से ही मिला । आईने में मोहन अपने को सोहन मान बैठा था । आईने का रहस्य जाना तो देखा कि वही मोहन यहाँ सोहन दिख रहा है, वही ब्रह्म यहाँ जीव दिख रहा है । बेवकूफी हटी तो हो गया काम ।
इस दिन का कोई उत्सव, पर्व, परम्परा नहीं है । जब करोड़ों-करोड़ों, अरबों-खरबों में कभी किसीको होता है तो कैसे पर्व मनायेंगे, क्या उत्सव मनायें ? आत्मसाक्षात्कार में कोई धड़ाका-भड़ाका नहीं होता । आत्मसाक्षात्कार दिवस है तो क्या 4 हाथवाले भगवान बन जायेंगे, कुछ बढ़िया कपड़ा पहन लेंगे ? नहीं, जीवन की वही लय चलती है । सारे उत्सव, पर्व, तप – ये सब जीव के लिए हैं, आत्मसाक्षात्कारवाले के लिए कुछ नहीं, मौज !
लाख चौरासी के चक्कर से थका, खोली कमर ।
अब रहा आराम पाना, काम क्या बाकी रहा ।।
जानना था सोई जाना, काम क्या बाकी रहा ।।
आत्मा-परमात्मा के अनुभववाले तो अपने आनंद स्वभाव में रहते हैं, आनंद में ही लीन हो जायेंगे । न स पुनरावर्तते… उनका फिर पुनरागमन नहीं होता । तपस्वी का पुनरागमन होगा, जिसको देह में ‘मैं’पना है उसका पुनरागमन होता है परंतु जिनको आत्मा-ब्रह्म में ‘मैं’पने का साक्षात्कार हो गया उनका पुनरागमन नहीं होता । फिर वे ही ब्रह्मा हो के सृष्टि करते हैं, विष्णु होकर पालन करते हैं, शिव हो के संहार करते हैं और जीव हो के संसार में सुखी-दुःखी होने की लीला करते हैं, ऐसा उनको अनुभव हो जाता है । और ‘चलो ! हम मुक्त हैं, ये बंधन में हैं’ ब्रह्मज्ञानी को ऐसा भी नहीं होता ।
आप भी यह इरादा बना लो !
आत्मसाक्षात्कार का मतलब है कि तत्त्व में जो अखंडता, एकरसता, ‘सार’ता है उससे बुद्धि पूर्ण भर जाय । तो आप अपनी मति को तत्त्वप्रसादजा बनाने का इरादा बना लो । इसके लिए मंत्रजप, सत्कर्म, भगवान को प्रार्थना करो और वेदांत के ग्रंथ व ‘ईश्वर की ओर’ (आश्रम से प्रकाशित पुस्तक) पढ़ो । सामवेद की संन्यास उपनिषद् में लिखा है कि आप प्रणव (ॐकार) का प्रतिदिन 12000 (120 माला) जप करो तो एक साल के अंदर आपको ‘तत्त्वप्रसादजा बुद्धि’, ब्रह्मविद्या प्रकटानेवाली बुद्धि प्राप्त हो जायेगी ।
REF: RP-ISSUE333-SEPTEMBER-2020
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