– संत श्री आशारामजी बापू
राजा भोज के दरबार में विद्वानों की सभा का आयोजन होता ही रहता था। एक बार राजा भोज के राजपंडित से द्वेष करनेवाले किसी द्वेषी आदमी ने राजपंडित को नीचा दिखाने के लिए राजा भोज से प्रार्थना की: “राजपंडित से ये चार प्रश्न पूछे जायें- ‘है, है, है । है, है, नहीं। नहीं, नहीं, है और ‘नहीं, नहीं, नहीं’ का मतलब क्या है ?”
राजपंडित के दरबार में आने पर राजा भोज ने उनसे यह प्रश्न किया, तब उन्होंने १५ दिन की मुहलत माँगी।
राजा भोज ने उन्हें १५ दिनों की मुहलत दे दी। राजपंडित निराश होकर घर गये एवं चिंतित होकर, खटिया डालकर एक ओर बैठ गये। उनकी ११-१२ साल की बेटी ने जब काफी समय तक अपने पिता को उदास एवं चिंतित देखा तो पूछा : “पिताजी ! क्या बात है ? आप काफी परेशान दिखाई दे रहे हैं !”
पहले तो पिता ने जवाब देने में आनाकानी की किन्तु जब बेटी अत्यंत आग्रह करने लगी तब पिता ने बताया : “बेटी ! राजा साहब ने चार प्रश्न पूछे हैं जिनका उत्तर देने में विफल होने से मेरा जीना मुश्किल हो जायेगा।”
राजपंडित की वह नन्हीं-सी बालिका सत्संग में जाया करती थी, अतः उम्र छोटी होते हुए भी उसकी समझ बहुत बढिया थी। वह बोली :
“पिताजी ! चिंता करने से बुद्धि काम नहीं देती है। अतः आप प्रसन्न रहिए। मैं हर रोज ध्यान-भजन करती हूँ और मैंने सत्संग में सुना है कि जब दुःख और मुसीबत आ जाय तब घबराना नहीं चाहिए वरन् शांतचित्त होकर भगवान का ध्यान करके अंतर्यामी राम का आश्रय लेकर अंतर्मुख होकर अंदर से प्रेरणा लेना चाहिए। चिंता नहीं, चिंतन करना चाहिए।
तुलसी साथी विपत के विद्या विनय विवेक साहस सुकृत सत्यव्रत राम भरोसा एक ॥ पिताजी में अंतर्यामी परमात्मा के ध्यान में डूयूँगी।
शुद्ध हृदय में भगवत्प्रेरणा होगी और कार्य सफा हो जायेगा। अभी तो आप भोजन कीजिए।” फिर भी राजपंडित ने भोजन नहीं किया। उस नन्हीं-सी बालिका ने भगवान का ध्यान किया और ध्यान करते-करते वह खो गयी। काफी देर के बाद जब उसकी वृत्ति बहिर्मुख हुई तब उसने पुनः कहा “पिताजी ! आप भोजन कर लीजिए। आपके प्रश्नों के उत्तर मिल गये हैं।”
राजपंडित: “क्या उत्तर हैं ?”
लड़की: “मैं आपको नहीं, राजा साहब को खुद बताऊँगी।” लड़की के कहने में सच्चाई झलक रही थी। उसकी वाणी से ओज टपक रहा था और उसके चेहरे से विश्वास की खबरें आ रही थीं। पंडित ने बड़ी प्रसन्नता से भोजन कर लिया।
दूसरे दिन लड़की ने रथ मँगवाया। राजपंडित और लड़की दोनों रथ में बैठकर जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक सेठ मिला जो गरीबों को पूड़ी-सब्जी दिये जा रहा था और सबको नम्रतापूर्वक हाथ जोड़े जा रहा था।
लड़की ने पूछा: “पिताजी! यह कौन है ?” राजपंडित: “बेटी ! यह नगरसेठ है। बड़ा भाग्यशाली है। यह परोपकारी आदमी है और इसकी बड़ी कीर्ति है। राजा साहब भी इस पर बड़े खुश रहते हैं।” लड़की: “पिताजी ! उनको बुलाकर रथ में बिठा लीजिए।” राजपंडित ने प्रार्थना करके सेठ को रथ में बिठा लिया।
रथ आगे बढ़ चला। कुछ देर बाद एक हवेली आयी जिसमें से साज-संगीत एवं नाच-गान की आवाज आ रही थी। लड़की: “पिताजी ! यह भी किसी सेठ का मकान है क्या ? वहाँसे कीर्तन की आवाज आ रही है ?”
राजपंडित: “बेटी! यह भी किसी सेठ की ही हवेली है किन्तु थे जो साज-संगीत की आवाज आ रही है वह कीर्तन नहीं है बल्कि युवक सेठ नृत्य देख रहा है। हास-विलास कर रहा है। इसने न तो किसीको खुद कुछ दिया न किसीको देने दिया। यह तो कंजूस वृत्ति का आदमी है।” बालिका : “पिताजी! उसको भी बुलाइए।”
राजपंडित “इस पापी को क्यों बुलाना ?” बालिका : “पिताजी! कम से कम आज तो मेरी बात मानें।”
उसे बुलाने आदमी गये तो वह घबराया। वह अपने पैसों को आप ही भोग रहा था, फिर भी भयभीत हुआ क्यों ? क्योंकि भोग में भय होता है। योग में निर्भयता होती है।
उस अभागे युवक सेठ को भी बुलाकर रथ में बिठा दिया गया। रथ थोड़ा आगे पहुँचा तो गाँव के बाहर एक पेड़ के नीचे एक साधु बाबा विराजमान दिखाई दिये। उनके सिर एवं दाढी के बाल बढ़े हुए थे तथा जटाएँ बिखरी हुई थीं। लडकी: “पिताजी! ये कौन हैं ?”
राजपंडित “बेटी! ये कोई साधु महाराज हैं।” लड़की “पिताजी इनको भी बुलाइए।” राजपंडित “बेटी इनको बुलाया नहीं जाता वरन् इनके पास जाया जाता है। ये अभी ध्यानमग्न है अतः इनके ध्यान में खलल डालना उचित नहीं है। हम थोड़ी देर इंतजार करेंगे।”
जब साधु महाराज की आँखें खुली तब राजपंडित ने विनम्रतापूर्वक प्रार्थना करते हुए कहा “महाराज! कृपा करके रथ पर विराजमान होइए।”
साधु महाराज: “मुझे जरूरत नहीं है।”
राजपंडित: ‘महाराज ! आपको तो जरूरत नहीं है लेकिन हमें आपकी जरूरत है। हमारा रथ पावन होगा।” आखिर ‘होना’ करते बाबाजी रथ में बैठ गये। रथ आगे बढ़ चला। आगे एक तालाब पर एक माछीमार फटे- पुराने कपड़ों में मछली फँसाने के इंतजार में था।
लड़की: “पिताजी ! यह कौन है ? राजपंडित : “बेटी देख इस अभागे का प्रारूध !
अभी सुबह-सुबह लोग जप ध्यानादि करके पुण्य अर्जित कर रहे होंगे किन्तु यह माछीमार पाप अर्जित कर रहा है।”
लड़की: “इसको भी रथ में बिठा लो।”
उस माछीमार को भी बुलाकर रथ में नीचे बिठा दिया गया। रथ राज दरबार तक पहुँचा। सभी लोग यथास्थान बैठ गये। तब लड़की ने राजा का अभिवादन किया और कहा:
“राजन् ! आपने मेरे पिताजी से चार प्रश्न पूछे थे। इसके उत्तर पिताजी की जगह पर मैं दे दूँ तो चलेगा ?”
राजा “अरे बड़े-बड़े पंडित और विद्वान भी जिसका उत्तर न दे सके उन प्रश्नों का उत्तर तू कैसे देगी ?” लड़की: “महाराज! मैं अवश्य उन प्रश्नों का उत्तर दे सकती हूँ।” लडकी की साहस एवं आत्मविश्वासयुक्त वाणी को सुनकर पूरी सभा में कौतुहल उत्पन्न हो गया कि ‘इतनी छोटी ग्यारह बारह वर्षीय लड़की जिन प्रश्नों का उत्तर बड़े-बड़े विद्वान तक न दे पाये, राजा के उन गूढ प्रश्नों का उत्तर यह देगी !’ निर्दोष हृदय की, आत्मविश्वास से पूर्ण वाणी को सुनकर राजा ने सहमति दे दी। तब लड़की ने पूछा: “आपक प्रश्नों का उत्तर केवल भाषा में दूँ या प्रायोगिक रूप से दे दूँ राजा : “यदि प्रमाण सहित दो तो और भी बढ़िया होगा ।”
लोग देखते रह गये ! लड़की ने नगरसेठ की ओर इशारा करते हुए कहा “राजन् ! आपका पहला प्रश्न है: ‘है. है, है।’ इस प्रश्न का उत्तर ये नगरसेठ है। इन्होंने अपने पूर्वजन्म में सत्कर्म किये हैं तभी ये अभी सुखी हैं और अभी इनके कर्म पवित्र हैं अतः इनका भविष्य भी सुखमय है- ‘है, है, है ।’
आपका दूसरा प्रश्न है है, है, नहीं।’ इस प्रश्न का उत्तर यह युवक सेठ है। इसके पहले के सत्कर्म है इसलिए इसके पास अभी सुख-सुविधाएँ हैं। किन्तु उन सुख- सुविधाओं का उपयोग यह केवल विषय भोग में खर्च कर रहा है अतः इसका भविष्य उज्ज्वल नहीं है-‘है, है, नहीं।’
राजन्! आपका तीसरा प्रश्न है ‘नहीं, नहीं है।’ इस प्रश्न का उत्तर स्वयं ये साधु महाराज है जो अभी आपसे भी ऊँचे सिंहासन पर विराजमान हैं। पहले तो मैं इनसे क्षमा चाहती हूँ। इन्होंने पहले कोई दान-पुण्य नहीं किया है इसलिए अभी इनके पास रहने खाने की सुविधा नहीं है किन्तु अभी जप तप ध्यानादि कर रहे हैं अतः इनका भविष्य पूर्णरूप से उज्ज्वल है ‘नहीं, नहीं है।’
आपका चौथा एवं अंतिम प्रश्न है नहीं, नहीं, नहीं।’ 2 इस प्रश्न का उत्तर फटे-पुराने कपड़ेवाला यह माछीमार है जिसे दरबानों ने द्वार पर ही रोक दिया है। इसके पहले के कोई सुकृत नहीं है इसलिए अभी इसके पास कोई सुख- सुविधाएँ नहीं हैं और यह अभी ऐसा ही अभागा कर्म कर रहा है अतः इसका भविष्य भी उज्ज्वल नहीं है ‘नहीं, नहीं, नहीं।”
युक्तियुक्त एवं प्रमाणित उत्तर, वह भी एक छोटी-सी बालिका के मुख से सुनकर राजा समेत सारी सभा दंग रह गयी !
इसके पीछे मूल कारण क्या था ? बालिका द्वारा किया जानेवाला सत्संग, ध्यान एवं जप। यदि व्यक्ति जप ध्यान, सत्संग-स्वाध्यायादि करता है, अपने मन को अंतर्मुख करता है तो किसी भी समस्या का समाधान बिना परेशानी के पाना उसके लिए सहज हो जाता है। अतः आप सभी इस कथा से प्रेरणा लेकर अंतर्मुखता का लाभ उठाने के पथ पर अग्रसर हो सकते हैं…
REF: ISSUE64-APRIL-1998
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