
ब्रह्मचर्य क्या है ?
पहले ब्रह्मचर्य क्या है- यह समझना चाहिए | ‘याज्ञवल्क्य संहिता’ में आया है :
कर्मणा मनसा वाचा सर्वास्थासु सर्वदा |
सर्वत्र मैथुनतुआगो ब्रह्मचर्यं प्रचक्षते ||
‘सर्व अवस्थाओं में मन, वचन और कर्म तीनों से मैथुन का सदैव त्याग हो, उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं |’
भगवान वेदव्यासजी ने कहा है :
ब्रह्मचर्यं गुप्तेन्द्रिस्योपस्थस्य संयमः |
‘विषय-इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाले सुख का संयमपूर्वक त्याग करना ब्रह्मचर्य है |’
भगवान शंकर कहते हैं :
सिद्धे बिन्दौ महादेवि किं न सिद्धयति भूतले |
‘हे पार्वती! बिन्दु अर्थात वीर्यरक्षण सिद्ध होने के बाद कौन-सी सिद्धि है, जो साधक को प्राप्त नहीं हो सकती ?’
साधना द्वारा जो साधक अपने वीर्य को ऊर्ध्वगामी बनाकर योगमार्ग में आगे बढ़ते हैं, वे कई प्रकार की सिद्धियों के मालिक बन जाते हैं | ऊर्ध्वरेता योगी पुरुष के चरणों में समस्त सिद्धियाँ दासी बनकर रहती हैं | ऐसा ऊर्ध्वरेता पुरुष परमानन्द को जल्दी पा सकता है अर्थात् आत्म-साक्षात्कार जल्दी कर सकता है |
देवताओं को देवत्व भी इसी ब्रह्मचर्य के द्वारा प्राप्त हुआ है:
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत |
इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण देवेभ्यः स्वराभरत ||
‘ब्रह्मचर्यरूपी तप से देवों ने मृत्यु को जीत लिया है | देवराज इन्द्र ने भी ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही देवताओं से अधिक सुख व उच्च पद को प्राप्त किया है |’
(अथर्ववेद 1.5.19)
ब्रह्मचर्य बड़ा गुण है | वह ऐसा गुण है, जिससे मनुष्य को नित्य मदद मिलती है और जीवन के सब प्रकार के खतरों में सहायता मिलती है |
ऐसे तो तपस्वी लोग कई प्रकार के तप करते हैं, परन्तु ब्रह्मचर्य के बारे में भगवान शंकर कहते हैं:
न तपस्तप इत्याहुर्ब्रह्मचर्यं तपोत्तमम् |
ऊर्ध्वरेता भवेद्यस्तु स देवो न तु मानुषः ||
‘ब्रह्मचर्य ही उत्कृष्ट तप है | इससे बढ़कर तपश्चर्या तीनों लोकों में दूसरी नहीं हो सकती | ऊर्ध्वरेता पुरुष इस लोक में मनुष्यरूप में प्रत्यक्ष देवता ही है |’
जैन शास्त्रों में भी इसे उत्कृष्ट तप बताया गया है |
तवेसु वा उत्त्मं बंभचेरम् |
‘ब्रह्मचर्य सब तपों में उत्तम तप है |’