पूज्य संत श्री आशारामजी बापू का 86वाँ अवतरण दिवस : 21 अप्रैल
वह वर्षगाँठ नहीं है…
स्थूल शरीर व सूक्ष्म शरीर के मेल को जन्म बोलते हैं और इनके वियोग को मृत्यु बोलते हैं । तो स्थूल-सूक्ष्म शरीरों का संयोग होकर जन्म ले के जीव इस पृथ्वी पर आया तो उसका है जन्मदिन । वह तिथि, तारीख, दिन, घड़ियाँ, मिनट, सेकंड देखकर कुंडली बनायी जाती है और उसके मुताबिक कहा जाता है कि आज 20वीं वर्षगाँठ है, 25वीं है, 50वीं है… फलाना आदमी 70 वर्ष का हो गया, 70 वर्ष जिया… लेकिन हकीकत में उनका वह जीना जीना नहीं है, उनकी वह वर्षगाँठ वर्षगाँठ नहीं है जो देह के जन्म को मेरा जन्म मानते हैं । जो देह को ‘मैं’ मानकर जी रहे हैं वे तो मर रहे हैं ! ऐसे लोगों के लिए तो संतों ने कहा कि उन्हें हर वर्षगाँठ को, हर जन्मदिन को रोना चाहिए कि ‘अरे, 22 साल मर गये, 23वाँ साल मरने को शुरू हुआ है । हर रोज एक-एक मिनट मर रहे हैं ।’
‘मेरा जन्मदिवस है, मिठाई बाँटता हूँ…’ नहीं, रोओ कि ‘अभी तक अपने प्यारे को नहीं देखा । अभी तक ज्ञान नहीं हुआ कि मेरा कभी जन्म ही नहीं, मैं अजर-अमर आत्मा हूँ । अभी तक दिल में छुपे हुए दिलबर का ज्ञान नहीं हुआ, आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ ।’ जिस दिन ज्ञान हो जाय उस दिन तुम्हें पता चलेगा कि
जन्म मृत्यु मेरा धर्म नहीं है,
पाप पुण्य कछु कर्म नहीं है ।
मैं अज निर्लेपी रूप, कोई कोई जाने रे ।।
तुम्हें जब परमात्मा का साक्षात्कार हो जायेगा तब लोग तुम्हारा नाम लेकर अथवा तुम्हारा जन्मदिन मना के आनंद ले लेंगे, मजा ले लेंगे, पुण्यकर्म करेंगे । तुमको रोना नहीं आयेगा, तुम भी मजा लोगे । उनका जन्म सार्थक हो गया जिन्होंने अजन्मा परमात्मा को जान लिया । उनको देह के जन्मों का फल मिल गया जिन्होंने अपने अजन्मा स्वरूप को जान लिया और जिन्होंने जान लिया, जिनका काम बन गया वे तो खुश रहते ही हैं । ऐसे मनुष्य-जन्म का काम बन गया कि परमात्मा में विश्रांति मिल गयी तो फिर रोना बंद हो जाता है ।
अपना जन्म दिव्यता की तरफ ले चलो
जो जन्मदिवस मनाते हैं उन्हें यह श्लोक सुना दो :
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।।
(गीता : 4.9)
हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं, इस प्रकार मेरे जन्म और कर्म को जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर का त्याग करने के बाद पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता, भगवद्-तत्त्व को प्राप्त हो जाता है ।
आप जिसका जन्मदिवस मनाने को जाते हैं अथवा जो अपना जन्मदिवस मनाते हैं, उन्हें इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि वास्तव में उस दिन उनका जन्म नहीं हुआ, उनके साधन का जन्म हुआ है । उस साधन को 50 साल गुजर गये, उसका सदुपयोग कर लो । बाकी के जो कुछ दिन बचे हैं उनमें ‘सत्’ के लिए उस साधन का उपयोग कर लो । करने की शक्ति का आप सदुपयोग कर लो, ‘सत्’ को, रब, अकाल पुरुष को जानने के उद्देश्य से सत्कर्म करने में इसका उपयोग कर लो । आपमें मानने की शक्ति है तो अपनी अमरता को मान लो । जानने की शक्ति है तो आप अपने ज्योतिस्वरूप को जान लो । सूर्य और चन्द्र एक ज्योति हैं लेकिन उनको देखने के लिए नेत्रज्योति चाहिए । नेत्रज्योति ठीक देखती है कि नहीं इसको देखने के लिए मनःज्योति चाहिए । मन हमारा ठीक है कि नहीं है इसे देखने के लिए मतिरूपी ज्योति चाहिए और हमारी मति गड़बड़ है कि ठीक है इसको देखने के लिए जीवरूपी ज्योति चाहिए । हमारे जीव को चैन है कि बेचैनी है, मेरा जी घबरा रहा है कि संतुष्ट है, इसको देखने के लिए आत्मज्योति, अकाल पुरुष की ज्योति चाहिए ।
मन तू ज्योतिस्वरूप, अपना मूल पिछान ।
साध जना मिल हर जस गाइये ।
उन संतों के साथ मिलकर हरि का यश गाइये और अपने जन्मदिवस को जरा समझ पाइये तो आपका जन्म दिव्य हो जायेगा, आपका कर्म दिव्य हो जायेगा । जब शरीर को ‘मैं’ मानते हैं और संसार की वस्तुओं को ‘मेरा’ मानते हैं तो आपका जन्म और कर्म तुच्छ हो जाते हैं । जब आप अपने आत्मा को अमर व अपने इस ज्योतिस्वरूप को ‘मैं’ मानते हैं और ‘शरीर अपना साधन है और वस्तु तथा शरीर संसार का है । संसार की वस्तु और शरीर संसार के स्वामी की प्रसन्नता के लिए उपयोग करनेभर को ही मिले हैं ।’ ऐसा मानते हैं तो आपका कर्म दिव्य हो जाता है, आपका जन्म दिव्यता की तरफ यात्रा करने लगता है ।
…तो ईश्वरप्राप्ति पक्की बात है !
श्रीकृष्ण का कैसा दिव्य जन्म है ! कैसे दिव्य कर्म हैं ! ऐसे ही रामजी का जन्म-कर्म, भगवत्पाद लीलाशाहजी बापू का, संत एकनाथजी, संत तुकाराम महाराज, संत कबीरजी आदि और भी नामी-अनामी संतों के जन्म-कर्म दिव्य हो गये श्रीकृष्ण की नाईं । तो जब वे महापुरुष जैसे आप पैदा हुए ऐसे ही पैदा हुए तो जो उन्होंने पाया वह आप क्यों नहीं पा सकते ? उधर नजर नहीं जाती । नश्वर की तरफ इतना आकर्षण है कि शाश्वत में विश्रांति में जो खजाना है वह पता ही नहीं चलता । स्वार्थ में माहौल इतना अंधा हो गया कि निःस्वार्थ कर्म करने से बदले में भगवान मिलते हैं इस बात को मानने की भी योग्यता चली गयी । सचमुच, निष्काम कर्म करो तो ईश्वरप्राप्ति पक्की बात है । ईश्वर के लिए तड़प हो तो ईश्वरप्राप्ति पक्की बात है । ईश्वरप्राप्त महापुरुष को प्रसन्न कर लिया तो ईश्वरप्राप्ति पक्की बात है । जिनको परमात्मा मिले हैं उनको प्रसन्न कर लिया… देखो बस ! मस्का मार के प्रसन्न करने से वह प्रसन्नता नहीं रहती । वे जिस ज्ञान से, जिस भाव से प्रसन्न रहें ऐसा आचरण करो बस !
डूब जाओ, तड़पो तो प्रकट हो जायेगा !
एक होता है जाया, दूसरा होता है जनक । एक होता है पैदा हुआ और दूसरा होता है पैदा करनेवाला । तो पैदा होनेवाला पैदा करनेवाले को जान नहीं सकता । मान सकते हैं कि ‘यह मेरी माँ है, यह मेरे पिता हैं ।’
तो सृष्टि की चीजों से या मन-बुद्धि से हम ईश्वर को जान नहीं सकते, मान लेते हैं । और मानेंगे तो महाराज ! ईश्वर व ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु की बात भी मानेंगे और उनकी बात मानेंगे तो वे प्रसन्न होकर स्वयं अपना अनुभव करा देंगे ।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ।।
(श्री रामचरित. अयो.कां. : 126.2)
बापू का 81वाँ जन्मदिवस है तो शरीर के जन्म के पहले हम (पूज्यश्री) नहीं थे क्या ? और इस शरीर के बाद हम नहीं रहेंगे क्या ?
तो मानना पड़ेगा कि ‘शरीर का जन्मदिवस है, मेरा नहीं है ।’ ऐसा मान के फिर आप लोग अपना जन्मदिवस मनाते हो तो मेरी मना नहीं है लेकिन ‘शरीर का जन्म मेरा जन्म है ।’ ऐसा मानने की गलती मत करना । ‘शरीर की बीमारी मेरी बीमारी है, शरीर का बुढ़ापा मेरा बुढ़ापा है, शरीर का गोरापन-कालापन मेरा गोरा-कालापन है…’ यह मानने की गलती मत करना ।
मनोबुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं…
शरीर भी मैं नहीं हूँ और मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त भी मैं नहीं हूँ । तो फिर क्या हूँ ? बस डूब जाओ, तड़पो तो प्रकट हो जायेगा ! असली जन्मदिवस तो तब है जब –
देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया ।
न छेड़ो मुझे यारों मैं खुद पे मस्ताना हो गया ।।
तभी तो जन्मदिवस का फल है । मरनेवाले शरीर का जन्मदिवस… जन्मदिवस तो मनाओ पर उसी निमित्त मनाओ जिससे सत्कर्म हो जायें, सद्बुद्धि का विकास हो जाय, अपने सत्स्वभाव को जानने की ललक जग जाय…
ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः । अपने आत्मदेव को जाननेवाला शोक, भय, जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि – सब बंधनों से मुक्त होता है ।
मुझ चिदाकाश को ये सब छू नहीं सकते, प्रतीतिमात्र हैं, वास्तव में हैं नहीं । जैसे स्वप्न व उसकी वस्तुएँ, दुःख, शोक प्रतीतिमात्र हैं । प्रभुजी = साधकजी ! आप भी वही हैं । ये सब गड़बड़ें मरने-मिटनेवाले तन-मन में प्रतीत होती हैं । आप न मरते हैं न जन्मते हैं, न सुखी-दुःखी होते हैं । आप इन सबको जाननेवाले हैं, नित्य-शुद्ध-बुद्ध, विभु-व्यापक चिदानंद चैतन्य हैं ।
चांदणा कुल जहान का तू,
तेरे आसरे होय व्यवहार सारा ।
तू सब दी आँख में चमकदा है,
हाय चांदणा तुझे सूझता अँधियारा ।।
जागना सोना नित ख्वाब तीनों,
होवे तेरे आगे कई बारा ।
बुल्लाशाह प्रकाश स्वरूप है,
इक तेरा घट वध न होवे यारा ।।
तुम ज्योतियों-की-ज्योति हो, प्रकाशकों-के-प्रकाशक हो । द्रष्टा हो मन-बुद्धि के और ब्रह्मांडों के अधिष्ठान हो । ॐ आनंद… ॐ अद्वैतं ब्रह्मास्मि । द्वितीयाद्वै भयं भवति । द्वैत की प्रतीति है, लीला है । अद्वैत ब्रह्म सत्य… ।
Ref: ISSUE316-APRIL-2019
Give a Reply