– पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
श्री हनुमान जयंती : 06 अप्रैल
हनुमानजी के जीवन की ये चार बातें आपके जीवन में आ जायें तो किसी काम में विफलता का सवाल ही पैदा नहीं होता :
(1) धैर्य (2) उत्साह (3) बुद्धिमत्ता (4) परोपकार ।
फिर पग-पग पर परमात्मा की शक्तियों का चमत्कार देखने को मिलेगा । हनुमानजी का एक सुंदर वचन हृदय पर लिख ही लो :
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई ।
जब तव सुमिरन भजन न होई ।।
(श्री रामचरित. सुं.कां.: 31.2)
विपत्ति की बेला वह है जब भगवान का भजन-सुमिरन नहीं होता । तब जीव अपनी हेकड़ी दिखाता है : ‘‘मैं ऐसा, मैं ऐसा…’’ अरे! अनंत-अनंत ब्रह्मांड जिसके एक रोमकूप में हैं, जिनकी गिनती ब्रह्माजी नहीं कर सकते हैं, ऐसे भगवान तेरे साथ हैं और तू अपनी छोटी-सी डिग्री-पदवी लेकर ‘मैं-मैं-मैं…’ करता है तो फिर ‘मैंऽऽऽ… मैंऽऽऽ…’ करनेवाला (बकरा) बनने की तैयारी कर रहा है कि नहीं?
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर ।
तेरा तुझको देत हैं, क्या लागत है मोर ।।
अहंकाररहित, विनम्रता की मूर्ति
हनुमानजी की प्रशंसा रामजी करते हैं तो जैसे सूखा बाँस गिर जाय अथवा कोई खम्भा गिर जाय ऐसे हनुमानजी एकदम रामजी के चरणों में गिर पड़ते हैं : ‘‘पाहिमाम् ! पाहिमाम् प्रभु ! पाहिमाम् !! प्रभु ! मैं बहुत पीड़ित हूँ, बहुत दुःखी हूँ ।’’
रामजी बोले : ‘‘हनुमान ! तुम सीता की खोज करके आये । ऋषि-मुनियों के लिए दुर्लभ ऐसी तुम्हारी गति ! ब्रह्मचारी होते हुए भी महिलाओं के विभाग में गये और वहाँ जाकर भी निष्काम ही रहे । कुछ लेना नहीं फिर भी सब कुछ करने में तुम सफल हुए फिर तुम्हें क्या कष्ट है ?’’
हनुमानजी : ‘‘आप मेरी प्रशंसा कर रहे हैं तो मैं कहाँ जाऊँगा ?’’
साधारण व्यक्ति तो किसीसे प्रशंसा सुनकर फूला नहीं समाता और भगवान प्रशंसा करें तो व्यक्ति की बाँछें खिल जायें परंतु हनुमानजी कितने सयाने, चतुर, विनम्रता की मूर्ति हैं ! तुरंत द्रवीभूत होकर रामजी के चरणों पर गिर पड़ते हैं कि ‘पाहिमाम् पाहिमाम् पाहिमाम्…’
मूर्ख लोग बोलते हैं कि ‘प्रशंसा से भगवान भी राजी हो जाते हैं ।’
अरे मूर्खो ! तुम भगवान के कितने गुण गाओगे ? अरब-खरबपति को बोलो कि ‘‘सेठजी ! तुम तो हजारपति हो, लखपति हो…’’ तो तुमने उसको गाली दे दी । ऐसे ही अनंत-अनंत ब्रह्मांड जिसके एक-एक रोम में हैं ऐसे भगवान की व्याख्या, प्रशंसा हम पूर्णरूप से क्या करेंगे !
रामु न सकहिं नाम गुन गाई । (रामायण)
भगवान भी अपने गुणों का बयान नहीं कर सकते तो तुम-हम क्या कर लेंगे ?
सात समुँद1 की मसि2 करौं, लेखनी सब वनराई3 ।
धरती सब कागद4 करौं, प्रभु गुन लिखा न जाई ।।
गुरु गुन लिखा न जाई ।।
हम भगवान की प्रशंसा करके भगवान का अपमान ही तो कर रहे हैं । फिर भी भगवान समझते हैं : ‘भोले बच्चे हैं, इस बहाने बेचारे अपनी वाणी पवित्र करते हैं ।…’
एक आशाराम नहीं, हजार आशाराम और एक जीभ नहीं, एक-एक आशाराम की हजार-हजार जीभ हो जायें फिर भी भगवान की महिमा गाऊँ तो भी सम्भव ही नहीं है । ऐसे हमारे प्रभु हैं ! और प्रभु के सेवक हनुमानजी… ओ हो ! संतों-के-संत हैं हनुमानजी !
विभीषण कहते हैं :
अब मोहि भा भरोस हनुमंता ।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ।।
(श्री रामचरित. सुं.कां. : 6.2)
हे हनुमान ! अब मुझे भरोसा हो गया है कि हरि की मुझ पर कृपा है तभी मुझे आप जैसे संत मिले हैं, नहीं तो संत का दर्शन नहीं हो सकता है ।
काकभुशुंडिजी कहते हैं :
जासु नाम भव भेषज5 हरन घोर त्रय सूल ।
सो कृपाल मोहि तो6 पर सदा रहउ अनुकूल ।।
(श्री रामचरित. उ.कां. : 124)
जिनका सुमिरन करने से आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक – तीनों ताप मिट जाते हैं वे भगवान मेरे अनुकूल हो जायें, बस !
हम तो यह कहते हैं कि भगवान अनुकूल हों चाहे न हों, हनुमानजी ! आप अनुकूल हो गये तो रामजी अनुकूल हो ही जायेंगे ।
ईश्वर की कृपा होती है तब ब्रह्मवेत्ता संत मिलते हैं और ब्रह्मवेत्ता संतों की कृपा होती है तब ईश्वर मिलते हैं (ईश्वर का वास्तविक पता मिल जाता है) । दोनों की कृपा होती है तब अपने आत्मा का साक्षात्कार होता है ।
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- समुद्र 2. स्याही 3. वन-समूह 4. कागज 5. संसाररूपी रोग की औषधि 6. तुम
REF: ISSUE352-RISHI PRASAD-2022
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