जब तक परम पद की प्राप्ति न हो तब तक हे साधक ! खूब सावधान रहना। एक प्रकार से आपके माने हुए मित्र, भगत आपके गहरे शत्रु हैं। किसी न किसी प्रकार आपको संसार में, नाम-रूप की सत्यता में घसीट लाते हैं। तुम्हारी सूक्ष्म वृत्ति उनके परिचय में आने से फिर स्थूल होने लगती है और तुम्हें ज्ञात भी नहीं होता।
सावधान ! ये मित्र और भगत भी गहरे शत्रु हैं। इन सांसारिक व्यक्तियों के मिलने जुलने के कारण आपके नये आध्यात्मिक संस्कार और ध्यान की एकाग्रता लुप्त हो जायेगी। कभी-कभी अपने मन की बेवकूफी साधन-भजन के समय में लापरवाही कराने लगेगी। संसारी लोगों से मिलना-जुलना साधनाकाल में बहुत ही अनर्थकारी है। दोनों कि विचारधाराएँ उत्तर दक्षिण हैं। संसारी व्यक्ति बातचीत करने का शौकीन होता है। नश्वर भोग-प्राप्ति उसका लक्ष्य होता है। साधक का लक्ष्य शाश्वत परमात्मा होता है। संसारी व्यक्ति की बातचीत का फल किसी के प्रति राग या द्वेष होता है। संसारियों के साथ बातें करने से राग, द्वेष और जगत की सत्यता दृढ़ होने लगती है। संसारी व्यक्ति जिह्वा के अतिसार से पीड़ित होता है। गपशप, व्यर्थ की बातें, बे-सिरपैर की बातें, लम्बी बातें, बड़ी बातें ये सब उसे सुखद लगती हैं। जबकि साधक मितभाषी, आध्यात्मिक विषय पर ही प्रसंग के अनुसार बोलनेवाला होता है। उसे संसारी बातों में रूचि नहीं और साधना-काल में सांसारिक बातों में उसे पीड़ा भी होती है लेकिन नैतिक भावों से प्रभावित होकर अपनी आन्तर पुकार के विपरीत भी वह संसार की हाँ में हाँ करने लगे अथवा उनके संपर्क में आकर बलात् संसार में खिंच जाये तो उसकी महीनों की कठोर साधना के द्वारा प्राप्त योगारूढ़ता क्षीण होने लगती है। दोनों की चिन्तन-विधि भी परस्पर भिन्न होती है। संसारी व्यक्ति की चिन्तनधारा का विषय पत्नी, संतान, धन संचित करने का उपाय, मित्र और शत्रु, राग-द्वेष होता है। उसका लक्ष्य ऐन्द्रिक सुखों का साधन होता है। उसका चिन्तन बहुत ही तुच्छ होता है। साधक का चिन्तन दिव्य होता है। ‘संकल्प-विकल्प मन में उठते हैं उससे परे उसके साक्षी ब्रह्मस्वरूप परमात्मा में स्थिति कैसे हो?’ आदि का अर्थात् परमात्म-विश्रान्ति विषयक उसका चिन्तन होता है। संसारी व्यक्ति सदा स्वार्थपूर्ण उद्देश्य से कार्य करता है, अहंकार सजाने के लिए कार्य करता है जबकि साधक समग्र संसार को अपना स्वरूप समझकर निःस्वार्थ भाव से, अहंकार विसर्जित करते हुए कार्य करता है। संसारी व्यक्ति के पास जो भाग-सामग्री है उसे वह बढ़ाना चाहता है और भविष्य में भी ऐन्द्रिक सुखों की सुव्यवस्था रखता है। साधक सारे ऐन्द्रिक विषय व्यर्थ समझकर इन्द्रियातीत, देशातीत, कालातीत, गुणातीत, आत्मसुख, परमात्म-स्थिति चाहता है। संसारी व्यक्ति जटिलता, बहुलता, रोगों के घर देह और क्षणभंगुर भोग और सुख की तुच्छ लालच में मँडराता है जबकि साधक सरल व्यक्ति होता है। देह से और तुच्छ भोगों से पार आत्मसुख का अभिलाषी होता है। संसारी व्यक्ति संगति खोजता है, साधक सर्वथा एकान्त पसंद करता है।
हे साधक ! तथा कथित मित्रों से, सांसारिक व्यक्तियों से अपने को बचाकर सदा एकाकी रहना। यह तेरी साधना की परम माँग है।
स्वामी रामतीर्थ प्रार्थना किया करते थेः
“हे प्रभु ! मुझे सुखों से और मित्रों से बचाओ। दुःखों से और शत्रुओं से मैं निपट लूँगा। सुख और मित्र मेरा समय व शक्ति बरबाद कर देते हैं और आसक्ति पैदा करते हैं। दुःखों में और शत्रुओं में कभी आसक्ति नहीं होती।
जब-जब साधक गिरे हैं तो तुच्छ सुखों और मित्रों के द्वारा ही गिरे हैं।
भैया ! सावधान ! एकान्तवास नितान्त आवश्यक है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म परब्रह्म परमात्मा को पाने के लिए एकान्तवास साधना की एक महान् माँग है, अनिवार्य आवश्यकता है। आप एक बार एकान्त का सुख भली प्रकार प्राप्त कर लें तो फिर आप उस पावन एकान्त के बिना नहीं रह सकते।
जिन्होंने अपने जीवन का मूल्य नहीं जाना, जिनमें विषय वासना की प्रबलता होती है वे ही निरंकुश बन्दर की तरह एक डाल से दूसरी डाल, कभी काशी कभी मथुरा, कभी डाकोर तो कभी रामेश्वर, कभी गुप्तकाशी तो कभी गंगोत्री, इधर से उधर घूमते रहते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि बहिरंग दौड़-धूप में शक्ति और एकाग्रता क्षीण होती है।
उत्तरकाशी, वाराणसी, रामेश्वर और गंगा, यमुना, नर्मदा, तापी के तट पर पवित्र स्थानों के इर्दगिर्द प्रकृति के सुरम्य वातावरण में, अरण्य में, नदी, सरोवर, सागरतट अथवा पहाड़ों में, जहाँ पूर्वकाल में ऋषि, मुनि या संत निवास कर चुके हैं ऐसे पवित्र स्थानों की महिमा का पता सूक्ष्म साधना करने वाले साधकों को ही चल सकता है। महापुरुषों के आध्यात्मिक स्पन्दनवाले स्थान साधक को बहुत सहाय करते हैं। हिमालय और गंगातट जैसे पावन स्थानों में कुछ महीने रहकर अथवा अपने अनूकूल किसी एकान्त कमरे में लोकसंपर्करहित होकर अपनी धारणा तथा ध्यानशक्ति बढ़ायें और बड़ी सावधानीपूर्वक उस एकाग्रता का संरक्षण करें। यदि आप अपनी रक्षा करनी नहीं जानते तो आपका मूल्यवाण प्राण, चुम्बकीय शक्ति, आपकी मानसिक शक्ति और प्राणशक्ति आपसे मिलनेवाले लोगों के प्रति चली जायेगी। आपको एक शक्ति-कवच बना लेना चाहिए। जो उन्नत साधक हों, ज्ञान-वैराग्य-भक्ति से भरे दिलवाले हों, उनके साथ प्रतिदिन एक घण्टा मिलना-जुलना, विचार विमर्श करना हानिकारक नहीं है। आपके हृदय में पता चलेगा कि किन व्यक्तियों से मिलने जुलने में वैराग्य बढ़ता है, प्रसन्नता, शान्ति बढ़ती है और किन लोगों से मिलने में आपके आध्यात्मिक संस्कार व शान्ति क्षीण होती है। संसारी आकांक्षाओंवाले लोगों के बीच अगर आना ही पड़े तो मौन का अवलम्बन लेना, अपनी साधना का प्रभाव छुपाना और उनके बीच जब हो तो जिह्वा तालू में लगाये रखना। इससे तुम्हारी शक्ति क्षीण होने से बच जायेगी। उनकी बातें कम से कम सुनना, युक्तिपूर्वक उनसे अपने को बचा लेना।
कभी-कभी अपना मन भी मनोराज करके हवाई किले बाँधने लगता है। साधनाकाल में बड़े प्रचार-प्रसार का और प्रसिद्ध होने का, लोक-कल्याण करने आदि का तूफान मचाया करता है। यह नितान्त हानिकर्ता है। उस समय परमात्मा को सच्चे हृदय से प्यार करें, प्रार्थना करें किः “हे प्रभो ! अहंकार बढ़ाने की मिथ्या नाम रूप की प्रसिद्धि विषयक तुच्छ वासनाएँ मुझे तुमसे मिलने में बाधा कर रहीं हैं। हे नाथ ! हे सर्वनियन्ता ! हे जगदीश्वर ! हे अन्तर्यामी ! मेरी इस निम्न प्रकृति को तू अपने आपमें पावन कर दे। मैं तेरे साथ अभिन्न हो जाऊँ। कहीं ये तुच्छ संकल्प-विकल्प पूरे करने में नया प्रारब्ध न बन जाये, नयी मुसीबतें खड़ी न हो जाय।”
इस प्रकार शुद्ध भाव करके निःसंकल्प, निश्चिन्तमना होकर समाधिस्थ होइये। संकल्प का विस्तार नहीं, संकल्प की पूर्ति नहीं लेकिन संकल्प की निवृत्ति हमारा लक्ष्य होना चाहिए। वह दशा आने से वास्तव में सुधार-कार्य आपके द्वारा होने लगेंगे और आपको कोई हानि नहीं होगी।
निःसंकल्प ब्रह्म है। संकल्प के पीछे भागना तुच्छ जीव होना है। जो-जो भगीरथ कार्य हुए हैं वे निःसंकल्प अवस्था में पहुँचे हुए महापुरुषों के द्वारा ही हुए हैं। परमात्मा की इस विराट सृष्टि में हमारा मन अपनी कल्पना से सुधारना आदि करने का जाल बुनकर हमें फँसाता है। उस समय ‘हरिः ॐ तत्सत् और सब गपशप…। आनन्दोऽहम्…. सर्वोऽहम्…. शिवरूपोऽहम्…. कल्याण-स्वरूपोऽहम्…. मायातीतो-गुणातीतो शान्तशिवस्वरूपोऽहम्….’ इस प्रकार अपने शिवस्वरूप में, शान्त स्वरूप में मस्त हो जाना चाहिए।
हताशा, निराशा के विचारों को महत्त्व नहीं देना चाहिए। हजार बार मनोराज होने की, पीछे हटने की संभावना है लेकिन हर समय नया उत्साह, सर्वशक्तिदायी प्रणव का जाप, आत्मबल और परमात्म-प्रेम बढ़ाते रहना चाहिए।
बन्द कमरे में शुद्ध भाव से अपने अन्तर्यामी प्रभु से, इष्ट से, गुरु से प्यार करके प्रेरणा पाते रहना चाहिए। ब्रह्मवेत्ता सत्पुरुषों के जीवन-चरित्र और अनुभव-वचनवाले ग्रन्थों का बार-बार अवलोकन करना चाहिए। वास्तव मे देखा जाये तो परमात्म-प्राप्ति कठिन नहीं है लेकिन जब मन और मन की बुनी हुई जालों में फँसते हैं तो कठिन हो जाता है। मन-बुद्धि से परे अपने सूक्ष्म, शुद्ध, ‘मैं’ को देखो तो नितान्त सरल और सहज सदैव-प्राप्त परमात्मा मिलेगा। तुम्हीं तो वह परब्रह्म परमात्मा हो, जिससे सारा जाना जाता है।
हे ज्ञान स्वरूप देव ! तू अपनी महिमा में जाग। कब तक फिसलाहट की खेल-कूद मचा रखेगा? तू जहाँ है, जैसा है, अपने आपमें पूर्ण परम श्रेष्ठ है। अपने शुद्ध, शान्त, श्रेष्ठ स्वरूप में तन्मय रह। छोटे-मोटे व्यक्तियों से, परिस्थितियों से, प्रतिकूलताओं से प्रभावित मत हो। बार-बार ॐकार का गुंजन कर और आत्मानंद को छलकने दे। ॐ….ॐ…..ॐ…..
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