
केवल प्राचीन समय में ही संत-महापुरुषों का अवतरण हुआ हो ऐसी बात नहीं है। अर्वाचीन समय में भी आध्यात्मिक ऊँचाईवाले अनेक संत, ऋषि, महर्षि हो गये हैं।
उन्हीं में से एक थे विश्ववंदनीय प्रातः स्मरणीय श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज।
उन्होंने सत्-चित्-आनंद की पराकाष्ठास्वरूप परमानंद को पाया था एवं अनेक साधकों को इसी दिशा की ओर मोड़ा था। उनका जीवन पृथ्वी के समस्त जीवों के लिए दिव्य प्रेरणास्रोत था। उनकी प्रत्येक चेष्टा समष्टि के हित के लिए ही थी।
उनके दर्शनमात्र से प्रसन्नता उत्पन्न हो जाती थी, निराशा के बादल छँट जाते थे, हताश हुए लोगों में उत्साह का संचार हो जाता था एवं उलझे हुओं की उलझनें दूर होकर उनमें नयी चेतना छा जाती थी। उनका सम्पूर्ण जीवन ही मानो निष्काम कर्मयोग का मूर्तिमंत स्वरूप था।
लोगों के जीवन में से लुप्त होते धार्मिक संस्कारों को पुनः जगाने के लिए, संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए एवं सोयी हुई आध्यात्मिकता में पुनः प्राण फूँकने के लिए वे आजीवन कार्यरत रहे। उनकी प्रार्थना ही विश्वकल्याण की भावना की द्योतक हैः
‘हे भगवान ! सबको सदबुद्धि दो…. शक्ति दो…. आरोग्यता दो… हम सब अपना-अपना कर्त्तव्य पालें एवं सुखी रहें….’
महिमा लीलाशाह की
आओ श्रोता तुम्हें सुनाऊँ, महिमा लीलाशाह की।
सिंध देश के संत शिरोमणि, बाबा बेपरवाह की।।
जय जय लीलाशाह, जय जय लीलाशाह।। -2
बचपन में ही घर को छोड़ा, गुरुचरण में आन पड़ा।
तन मन धन सब अर्पण करके, ब्रह्मज्ञान में दृढ़ खड़ा। – 2
नदी पलट सागर में आयी, वृ्त्ति अगम अथाह की।।
सिंध देश के…..
योग की ज्वाला भड़क उठी, और भोग भरम को भस्म किया।
तन को जीता मन को जीता, जनम मरण को खत्म किया। – 2
नदी पलट सागर में आयी, वृत्ति अगम अथाह की।। सिंध देश के…..
सुख को भरते दुःख को हरते, करते ज्ञान की बात जी।
जग की सेवा लाला नारायण, करते दिन रात जी। – 2
जीवन्मुक्त विचरते हैं ये दिल है शहंशाह की।।
सिंध देश के..