श्रावणी पूर्णिमा को राखी पूर्णिमा कहते हैं । अरक्षित चित्त को, अरक्षित जीव को सुरक्षित करने का मार्ग देनेवाली और संकल्प को साकार करानेवाली पूर्णिमा है ‘श्रावणी पूर्णिमा’। यह ब्राह्मणों के लिए जनेऊ बदलकर ब्रह्माजी और सूर्यदेव से वर्ष भर आयुष्य बढाने की प्रार्थना करनेवाली पूर्णिमा है । यह पूर्णिमा समुद्री नाविकों के लिए समुद्रदेव की पूजा करके नारियल भेंट करने और अपनी छोटी उँगली से खून की बूँद निकालकर समुद्रदेव को अर्पण करके सुरक्षा की प्रार्थना करनेवाली पूर्णिमाहै ।
इस श्रावणी पूर्णिमा के दिन सामवेद का गान और तान अर्थात् संगीत का प्राकट्य हुआ था । इस दिन सरस्वती की उपासना करनेवाले रागविद्या में निपुणता का बल पा सकते हैं । इस श्रावणी पूर्णिमा से ऋतु-परिवर्तन होता है । इस कालखण्ड में शरद ऋतु शुरू होती है । शरीर में जो पित्त इकट्ठा हुआ है, वह प्रकुपित होता है ।
गुरुपूर्णिमा गुरु संकल्प करानेवाली पूर्णिमा है । यह लघु इन्द्रियों, लघु मन और लघु विकारों में भटकते हुए जीवन में से गुरु सुख-बडा सुख, आत्मसुख, गुरुज्ञान-आत्मज्ञान की ओर ले चलती है । लघु ज्ञान से लघु जीवनों से तो यात्रा करते-करते चौरासी लाख जन्मों से यह जीव भटकता आया । तो आषाढी पूर्णिमा, गुरुपूर्णिमा के बिल्कुल बाद की जो पूर्णिमा है, वह श्रावणी पूर्णिमा है; गुरुपूर्णिमा का संकल्प साकार करने के लिए है रक्षाबंधन पर्व, नारियली पूनम, श्रावणी पूनम। गुरुपूर्णिमा का गुरु संकल्प क्रिया में लाने की यह पूर्णिमा है । उसे व्यवहार में लाने के लिए यह पूर्णिमा प्रेरणा देती है ।
अँधेरी रात में श्रवण कुमार नदी से जल लाने गये थे । राजा दशरथ समझे कि मृग आया नदी पर और शब्दभेदी बाण मारा । तो जहाँ से शब्द आ रहा था बाण वहाँ गया और मातृ-पितृभक्त श्रवण की हत्या हो गयी। राजा दशरथ ने उस हत्या के पाप से म्लानचित्त होकर उसके माँ-बाप से क्षमायाचना की और श्रवण का श्रावणी पूनम के निमित्त खूब प्रचार भी किया ।
‘रक्षाबंधन महोत्सव’ यह अति प्राचीन सांस्कृतिक महोत्सव है । बारह वर्ष तक इन्द्र और दैत्यों के बीच युद्ध चला । आपके-हमारे बारह वर्ष, उनके बारह दिन । इन्द्र थक से गये थे और दैत्य हावी हो रहे थे। इन्द्र उस युद्ध से प्राण बचाकर पलायन के कगार पर आ खडे हुए । इन्द्राणी ने इन्द्र की परेशानी सुनकर गुरु की शरण ली । गुरु बृहस्पति तनिक शांत हो गये उस सत्-चित्-आनंद स्वभाव में, जहाँ ब्रह्माजी शांत होते हैं अथवा जहाँ शांत होकर ब्रह्मज्ञानी महापुरुष सभी प्रश्नों के उत्तर ले आते हैं, सभी समस्याओं का समाधान ले आते हैं । आप भी उस आत्मदेव में शांत होने की कला सीख लो ।
गुरुजी ने ध्यान करके इन्द्राणी को कहा : ‘‘अगर तुम अपने पातिव्रत्य-बल का उपयोग करके यह संकल्प कर कि ‘मेरे पतिदेव सुरक्षित रहें’, इन्द्र के दायें हाथ में एक धागा बाँध दोगी तो इन्द्र हारी बाजी जीत लेंगे ।” गुरु की आज्ञा… ! महर्षि वसिष्ठजी कहते हैं : ‘‘हे रामजी ! त्रिभुवन में ऐसा कौन है जो संत की आज्ञा का उल्लंघन करके सुखी रह सके ?” और ऐसा त्रिभुवन में कौन है कि गुरु की आज्ञा पालने के बाद उसके पास दुःख टिक सके । मैंने गुरु की आज्ञा मानी तो मेरे पास किसी भी प्रकार का कोई दुःख भेजकर देखो, नहीं टिकता है । एक-दो नहीं, कितने-कितने आदमियों ने कुप्रचार करके दुःख भेजकर देखा, यहाँ टिकता ही नहीं क्योंकि मैंने गुरु की आज्ञा मान रखी है। आप भी गुरु की आज्ञा मानकर लघु कल्पनाओं से बाहर आइये, लघु शरीर के अहं से बाहर आइये, लघु मान्यताओं से बाहर आइये । इन्द्र विजयी हुए, इन्द्राणी का संकल्प साकार हुआ ।
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः ।
तेन त्वां अभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ।।
जिस पतले रक्षासूत्र ने महाशक्तिशाली असुरराज बलि को बाँध दिया, उसीसे मैं आपको बाँधती हूँ । आपकी रक्षा हो । यह धागा टूटे नहीं और आपकी रक्षा सुरक्षित रहे । – यही संकल्प बहन भाई को राखी बाँधते समय करे ।
शिष्य गुरु को रक्षासूत्र बाँधते समय ‘अभिबध्नामि’ के स्थान पर ‘रक्षबध्नामि’ कहे ।
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