(पूज्य बापूजी के सत्संग-प्रवचन से)
पार्वतीजी ने भगवान शंकर को पाने के लिए तप किया | शिवजी प्रकट हुए और दर्शन दिये | शिवजी ने पार्वतीजी के साथ विवाह करना स्वीकार कर लिया | शिवजी अंतर्ध्यान हो गये | इतने में थोड़ी दूर किसी तालाब में एक ग्राह ने किसी बच्चे को पकड़ा | बच्चा चिल्लाता हो ऐसी आवाज आयी | पार्वतीजी ने गौर से सुना तो वह बच्चा बड़ी दयनीय स्थिति में चिल्ला रहा था : “मुझे बचाओ…….मेरा कोई नही है………मुझे बचाओ……….!”
बच्चा चीख रहा था, आक्रांत कर रहा है | पार्वतीजी का हृदय द्रवीभूत हो गया | पार्वतीजी वहाँ गयीं | देखती हैं तो एक सुकुमार बालक है और उसका पैर ग्राह ने पकड़ रखा है | ग्राह उसे घसीटता हुआ ले जा रहा है |
बालक कहता है : “मेरा दुनिया में कोई नहीं | मेरी न माता है, न पिता है, न मित्र है, मेरा कोई नहीं | मुझे बचाओ !”
पार्वतीजी कहती हैं : “हे ग्राह ! हे मगरमच्छ ! इस बच्चे को छोड़ दे |”
मगर ने कहा : ” दिन के छठे भाग में जो मुझे प्राप्त हो, उसको मुझे अपना आहार समझकर स्वीकार करना है और ब्रह्माजी ने दिन के छठे भाग में यह बालक मेरे पास भेजा है | अब मैं क्यों छोडू ?”
पार्वतीजी : “हे ग्राह ! तू इसे छोड़ दे | इसके बदले में तुझे जो चाहिए वह ले ले |”
ग्राह ने कहा : “तुमने जो तप करके शिवजी को प्रसन्न किया और वरदान माँगा, उस तप का फल देती हो तो मैं इस बच्चे को छोड़ सकता हूँ, अन्यथा नहीं |”
पार्वतीजी ने कहा : “यह क्या बात कर रहे हो ! इस जन्म का ही नहीं अपितु कई जन्मों के तप का फल मैं तुझे अर्पण करने को तैयार हूँ लेकिन तू इस बच्चे को छोड़ दे |”
ग्राह कहता है : “सोच लो, आवेश में आकर संकल्प मत करो |”
पार्वतीजी बोलीं : “मैंने सोच लिया |”
ग्राह ने पार्वतीजी से तपदान का संकल्प करवाया | तपश्चर्या का दान मिलते ही ग्राह का तन तेज से चमक उठा | बच्चे को छोड़कर ग्राह ने कहा : “पार्वतीजी ! तुम्हारे तप के प्रभाव से मेरा शरीर कितना सुंदर हो गया है ! मानो मैं तेजपुंज हो गया हूँ | तुमने अपने सारे जीवन की कमाई एक छोटे-से बालक को बचाने में लगा दी !”
पार्वतीजी ने कहा : “ग्राह ! तप तो मैं दुबारा कर सकती हूँ लेकिन बालक को तू निगल जाता तो ऐसा निर्दोष बालक फिर कैसे आता ?”
देखते-देखते वह बालक अंतर्ध्यान हो गया | ग्राह भी अंतर्ध्यान हो गया | पार्वतीजी ने सोचा कि “मैंने तप का दान कर दिया, अब फिर से तप करूँ |” पार्वतीजी फिर से तप करने बैठी | ज्यों ही थोडा-सा ध्यान किया, त्यों ही भगवान सदाशिव फिर से प्रकट होकर बोले : “पार्वती ! अब क्यों तप करती हो ?”
पार्वतीजी बोलीं : “प्रभु ! मैंने तप का दान कर दिया है |”
शिवजी बोले : “पार्वती ! ग्राह के रूप में मैं ही था और बालक के रूप में भी मैं ही था | तुम्हारा चित्त प्राणिमात्र में आत्मीयता का एहसास करता है या नहीं, यह परीक्षा करने के लिए मैंने लीला की थी | अनेक रूपों में दिखनेवाला मैं एक-का-एक हूँ | मैं अनेक शरीरों में, शरीरों से न्यारा अशरीरी आत्मा हूँ | प्राणिमात्र में आत्मीयता का तुम्हारा भाव धन्य है !”
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