वर्षगाँठ के दिन वर्षभर में जो आपने भले कार्य किये वे भूल जाओ, उनका ब्याज या बदला न चाहो, उन पर पोता फेर दो । जो बुरे कार्य किये, उनके लिए क्षमा माँग लो, आप ताजे-तवाने हो जाओगे । किसीने बुराई की है तो उस पर पोता फेर दो । तुमने किसीसे बुरा किया है तो वर्षगाँठ के दिन उस बुराई के आघात को प्रभावहीन करने के लिए जिससे बुरा किया है उसको जरा आश्वासन, स्नेह दे के, यथायोग्य करके उससे माफी करवा लो, छूटछाट करवा लो तो अंतःकरण निर्मल हो जायेगा, ज्ञान प्रकट होने लगेगा, प्रेम छलकने लगेगा, भाव-रस निखरने लगेगा और भक्ति का संगीत तुम्हारी जिह्वा के द्वारा छिड़ जायेगा ।
कोई भी कार्य करो तो उत्साह से करो, श्रद्धापूर्वक करो, अडिग धैर्य व तत्परता से करो, सफलता मिलेगी, मिलेगी और मिलेगी ! और आप अपने को अकेला, दुःखी, परिस्थितियों का गुलाम मत मानो । विघ्न-बाधाएँ तुम्हारी छुपी हुई शक्तियाँ जगाने के लिए आती हैं । विरोध तुम्हारा विश्वास जगाने के लिए आता है ।
जो बेचारे कमजोर हैं, हार गये हैं, थक गये हैं बीमारी से या इससे कि ‘कोई नहीं हमारा…’, वे लोग वर्षगाँठ के दिन सुबह उठ के जोर से बोलें कि ‘मैं अकेला नहीं हूँ, मैं कमजोर या बीमार नहीं हूँ । हरि ॐ ॐ ॐ…’ इससे भी शक्ति बढ़ेगी ।
आप जैसा सोचते हैं वैसे बन जाते हैं । अपने भाग्य के आप विधाता हैं । तो अपने जन्मदिन पर यह संकल्प करना चाहिए कि ‘मुझे मनुष्य-जन्म मिला है, मैं हर परिस्थिति में सम रहूँगा; मैं सुख-दुःख को खिलवाड़ समझकर अपने जीवनदाता की तरफ यात्रा करता जाऊँगा – यह पक्की बात है ! हमारे अंदर आत्मा-परमात्मा का असीम बल व योग्यता छिपी है ।’
ऐसा करके आगे बढ़ो । सफल हो जाओ तो अभिमान के ऊपर पोता फेर दो और विफल हो जाओ तो विषाद के ऊपर पोता फेर दो । तुम अपना हृदयपटल कोरा रखो और उस पर भगवान के, गुरु के धन्यवाद के हस्ताक्षर हो जाने दो ।
आपकी दृष्टि कैसी है ?
साधक-दृष्टि यह है कि ‘जो बीत गया, उसमें जो गलतियाँ हो गयीं, ऐसी गलतियाँ आनेवाले वर्ष में न करेंगे’ और जो हो गयीं उनके लिए थोड़ा पश्चात्ताप व प्रायश्चित करके उनको भूल जायें और जो अच्छा हो गया उसको याद न करें ।
भक्त-दृष्टि है कि ‘जो अच्छा हो गया, भगवान की कृपा से हुआ और जो बुरा हुआ, मेरी गलती है । हे भगवान ! अब मैं गलतियों से बचूँ ऐसी कृपा करना ।’
सिद्ध की दृष्टि है कि ‘जो कुछ हो गया वह प्रकृति में, माया में हो गया, मुझ नित्य-शुद्ध-बुद्ध-निरंजन नारायणस्वरूप में कभी कुछ होता नहीं ।’ असङ्गोह्ययं पुरुषः… नित्योऽहम्… शुद्धोऽहम्… बुद्धोऽहम्… करके अपने स्वभाव में रहते हैं सिद्ध पुरुष । कर्ता, भोक्ता भाव से बिल्कुल ऊपर उठे रहते हैं ।
अगर आप सिद्ध पुरुष हैं, ब्रह्मज्ञानी हैं तो आप ऐसा सोचिये जैसा श्रीकृष्ण सोचते थे, जैसा जीवन्मुक्त सोचते हैं । अगर साधक हैं तो साधक के ढंग का सोचिये । कर्मी हैं तो कर्मी के ढंग का सोचिये कि ‘सालभर में इतने-इतने अच्छे कर्म किये । इनसे ज्यादा अच्छे कर्म कर सकता था कि नहीं ?’ जो बुरे कर्म हुए उनके लिए पश्चात्ताप कर लो और जो अच्छे हुए वे भगवान के चरणों में सौंप दो । इससे तुम्हारा अंतःकरण शुद्ध, सुखद होने लगेगा ।
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