जीवन के जितने वर्ष पूरे हुए, उनमें जो भी ज्ञान, शांति, भक्ति थी, आनेवाले वर्ष में हम उससे भी ज्यादा भगवान की तरफ, समता की तरफ, आत्मवैभव की तरफ बढ़ें इसलिए जन्मदिवस मनाया जाता है।
‘जन्म’ किसको बोलते हैं? जो अव्यक्त है, छुपा हुआ है वह प्रकट हुआ इसको ‘जन्म’ बोलते हैं। और ‘अवतरण’ किसको बोलते हैं? जो ऊपर से नीचे आये। जैसे राष्ट्रपति अपने पद से नीचे आये और स्टेनोग्राफर को मददरूप हो जाय, उनके साथ मिलकर काम करे-कराये इसको बोलते हैं ‘अवतरण’। कुछ लोग केक काटते हैं, मोमबत्तियाँ फूँकते हैं और फूँक के द्वारा लाखों-लाखों जीवाणु निकलते हैं। यह जन्मदिवस मनाने का पाश्चात्य तरीका है लेकिन हमारी भारतीय संस्कृति में इस तरीके को अस्वीकार कर दिया गया है। तमसो मा ज्योतिर्गमय – हम अंधकार से प्रकाश की तरफ जायें। अंधकारमयी कई योनियों से हम भटकते हुए आये, अब आत्मप्रकाश में जियें।
जन्मदिवस मनाने के पीछे उद्देश्य होना चाहिए कि आज तक के जीवन में जो हमने अपने तन के द्वारा सेवाकार्य किया, मन के द्वारा सुमिरन किया और बुद्धि के द्वारा ज्ञान-प्रकाश पाया, अगले साल अपने ज्ञान में परमात्म-तत्त्व के प्रकाश को हम और भी बढ़ायेंगे, सेवा की व्यापकता को बढ़ायेंगे और भगवत्प्रीति को बढ़ायेंगे। ये तीन चीजें हो गयीं तो आपको उन्नत बनाने में आपका यह जन्मदिवस बड़ी सहायता करेगा। परंतु किसीका जन्मदिवस है और झूम बराबर झूम शराबी… पेग पिये और क्लबों में गये तो यह सत्यानाश दिवस साबित हो जाता है।
संतों-महापुरुषों की जयंती अथवा भगवान का अवतरण-दिवस रामनवमी, कृष्ण-जन्माष्टमी आदि मनाते हैं तो इससे हमको, समाज को ही फायदा है, हमारी ही आध्यात्मिक तथा भौतिक उन्नति होती है। मैं अपने लिए जन्मदिवस नहीं मनाता लेकिन जन्मदिवस को माध्यम बनाकर हर वर्ष लाखों बच्चों में प्रेरणादायी सुवाक्यवाली कापियाँ बँटती हैं। सत्रह हजार से भी अधिक चल रहे बाल संस्कार केन्द्रों में भोजन-प्रसाद वितरण, भजन-कीर्तन, अच्छे संस्कारों का सिंचन आदि किया जाता है। चौदह सौ से अधिक चल रहीं समितियों में सेवाकार्य करके उत्सव मनाया जाता है।
अवतरण-दिवस का यही संदेश है कि आप ‘बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय’ कार्य करके स्वयं परमात्मा में विश्रांति पा लो। बाहर से सुख पाने की वासना मिटाओ और सुखस्वरूप में विश्रांति पाते जाओ। समय बहुत तेजी से बीता जा रहा है। पतन का युग बहुत तेज रफ्तार से आगे बढ़ रहा है। उत्थान चाहनेवाले अपना उत्थान कर लो तो कर लो।
पहले बाल-विवाह होता था। एक मुखिया ने अपने बालक के विवाह की व्यवस्था की। अभी मंगलं भगवान विष्णुः… शुरू ही हुआ था कि इतने में बाहर डुगडुगी बजी, बंदरियाँ नचानेवाला आया।
बाल दूल्हा उठ खड़ा हुआ, बोला : ‘‘पिताजी! पिताजी! मैं तो बंदरियाँ देखने जाता हूँ।’’
पिताजी बोले : ‘‘यह क्या करता है! शादी के फेरे फिर ले।’’
वर बोला : ‘‘फेरे तुम फिर लेना, मैं तो बंदरियाँ देखने जाता हूँ।’’ और वह बंदरवालों की डुगडुगी सुनकर भागा।
ऐसे ही आप लोग बोलते हो : ‘गुरुजी! तुम पा लेना भगवान को, संसार की डुगडुगियाँ बज रही हैं, हम देखने जा रहे हैं। हम तो केवल आपका जन्मदिवस मनाने आये थे।’ अरे नन्हे बच्चे! हमारा तो कभी जन्म ही नहीं होता जिसको तुम मनाओगे। हमारा कभी जन्म था नहीं, है नहीं, हो सकता नहीं। हाँ, हमारे साधन (शरीर) का जन्म तुम मनाओ। बाकी हमारा तो कभी जन्म ही नहीं हुआ, गुरु महाराज ने दिखा दिया घर में घर।
तो भगवान और कारक महापुरुषों का जन्म होता है करुणा-परवश होकर, दयालुता से। वे करुणा करके आते हैं तो यह अवतरण हो गया। हमारे कष्ट मिटाने के लिए भगवान का जो भी प्रेमावतार, ज्ञानावतार अथवा मर्यादावतार आदि होता है, तब वे हमारे नाईं जीते हैं, हँसते-रोते हैं, खाते-खिलाते हैं, सब करते हुए भी सम रहते हैं तो हमको उन्नत करने के लिए। उन्नत करने के लिए जो होता है वह अवतार होता है।
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