मंत्र जपने की विधि, मंत्र के अक्षर, मंत्र का अर्थ, मंत्र अनुष्ठान की विधि जानकर तदनुसार जप करने से साधक की योग्यताएँ विकसित होती हैं |
वह महेश्वर से मुलाकात करने की योग्यता भी विकसित कर लेता है किन्तु यदि वह मंत्र का अर्थ नहीं जानता या अनुष्ठान की विधि नहीं जानता या
फिर लापरवाही करता है, मंत्र के गुंथन का उसे पता नहीं है तो फिर ‘राँग नंबर’ की तरह उसके जप के प्रभाव से उत्पन्न आध्यात्मिक शक्तियाँबिखर जायेंगी
तथा स्वयं उसको ही हानि पहुंचा सकती हैं | जैसे प्राचीन काल में ‘इन्द्र को मारनेवाला पुत्र पैदा हो’ इस संकल्प की सिद्धि के लिए दैत्यों द्वारा यज्ञ किया गया |
लेकिन मंत्रोच्चारण करते समय संस्कृत में हृस्वऔर दीर्घ की गलती से ‘इन्द्र से मारनेवाला पुत्र पैदा हो’ - ऐसा बोल दिया गया तो वृत्रासुर पैदा हुआ, जो इन्द्र को नहीं मार पाया वरन् इन्द्र के हाथों मारा गया | अतः मंत्र और अनुष्ठान की विधि जानना आवश्यक है |
1. अनुष्ठान कौन करे ?: गुरुप्रदत्त मंत्र का अनुष्ठान स्वयं करना सर्वोत्तम है | कहीं-कहीं अपनी धर्मपत्नी से भी अनुष्ठान कराने की आज्ञा है, किन्तु ऐसे प्रसंग में पत्नी
पुत्रवती होनी चाहिए | स्त्रियों को अनुष्ठान के उतने ही दिन आयोजित करने चाहिए जितने दिन उनके हाथ स्वच्छ हों | मासिक धर्म के समय में अनुष्ठान खण्डित हो जाता है |
2. स्थान: जहाँ बैठकर जप करने से चित्त की ग्लानि मिटे और प्रसन्नता बढ़े अथवा जप में मन लग सके, ऐसे पवित्र तथा भयरहित स्थान में बैठकर ही अनुष्ठान करना चाहिए |
3. दिशा: सामान्यतया पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके जप करना चाहिए | फिर भी अलग-अलग हेतुओं के लिए अलग-अलग दिशाओं की ओर मुख करके जप करने का विधान है |
‘श्रीगुरुगीता’ में आता है: “उत्तर दिशा की ओर मुख करके जप करने से शांति, पूर्व दिशा की ओर वशीकरण, दक्षिण दिशा की ओर मारण सिद्ध होता है
तथा पश्चिम दिशा की ओर मुख करके जप करने से धन की प्राप्ति होती है | अग्नि कोण की तरफमुख करके जप करने से आकर्षण, वायव्य कोण की तरफ शत्रु नाश,
नैॠत्य कोण की तरफ दर्शन और ईशान कोण की तरफ मुख करके जप करने से ज्ञान की प्राप्ति होती है | आसन बिना या दूसरे के आसन पर बैठकर कियागया जप फलता नहीं है
| सिर पर कपड़ा रख कर भी जप नहीं करना चाहिए |
साधना-स्थान में दिशा का निर्णय: जिस दिशा में सूर्योदय होता है वह है पूर्व दिशा | पूर्व के सामने वाली दिशा पश्चिम दिशा है |
पूर्वाभिमुख खड़े होने पर बायें हाथ पर उत्तर दिशा और दाहिने हाथ पर दक्षिण दिशा पड़ती है | पूर्व औरदक्षिण दिशा के बीच अग्निकोण, दक्षिण और पश्चिम दिशा के बीच नैॠत्य कोण,
पश्चिम और उत्तर दिशा के बीच वायव्य कोण तथा पूर्व और उत्तर दिशा के बीच ईशान कोण होता है |
4. आसन: विद्युत के कुचालक (आवाहक) आसन पर व जिस योगासन पर सुखपूर्वक काफी देर तक स्थिर बैठा जा सके, ऐसे सुखासन,
सिद्धासन या पद्मासन पर बैठकर जप करो | दीवार पर टेक लेकर जप न करो |
5. माला: माला के विषय में ‘मंत्रजाप विधि’ नामक अध्याय में विस्तार से बताया जा चुका हि | अनुष्ठान हेतु मणिमाला ही सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है |
6. जप की संख्या : अपने इष्टमंत्र या गुरुमंत्र में जितने अक्षर हों उतने लाख मंत्रजप करने से उस मंत्र का अनुष्ठान पूरा होता है |
मंत्रजप हो जाने के बाद उसका दशांश संख्या में हवन, हवन का दशांश तर्पण, तर्पण कादशांश मार्जन और मार्जन का दशांश ब्रह्मभोज कराना होता है |
यदि हवन, तर्पणादि करने का सामर्थ्य या अनुकूलता न हो तो हवन, तर्पणादि के बदले उतनी संख्या में अधिक जप करने से भी काम चलता है | उदाहणार्थ: यदिएक अक्षर का मंत्र हो तो 100000 + 10000 + 1000 + 100 + 10 = 1,11,110 मंत्रजप करने सेसब विधियाँ पूरी मानी जाती हैं |
अनुष्ठान के प्रारम्भ में ही जप की संख्या का निर्धारण कर लेना चाहिए। फिर प्रतिदिन नियत स्थान पर बैठकर निश्चित समय में, निश्चित संख्या में जप करना चाहिए।
अपने मंत्र के अक्षरों की संख्या के आधार पर निम्नांकित तालिका के अनुसार अपने जप की संख्या निर्धारित करके रोज निश्चित संख्या में ही माला करो। कभी कम, कभी ज़्यादा......... ऐसा नहीं।
जप करने की संख्या चावल, मूँग आदि के दानों से अथवा कंकड़-पत्थरों से नहीं बल्कि माला से गिननी चाहिए। चावल आदि से संख्या गिनने पर जप का फल इन्द्र ले लेते हैं।
7.मंत्र संख्या का निर्धारणः कई लोग ‘ॐ’ को ‘ओम’ के रूप में दो अक्षर मान लेते हैं और नमः को नमह के रूप में तीन अक्षर मान लेते हैं।
वास्तव में ऐसा नहीं है। ‘ॐ’ एक अक्षर का है और ‘नमः’ दो अक्षर का है। इसीप्रकार कई लोग ‘ॐ हरि’ या ‘ॐ राम’ को केवल दो अक्षर मानते हैं
जबकि ‘ॐ... ह... रि...’ इस प्रकार तीन अक्षर होते हैं। ऐसा ही ‘ॐ राम’ संदर्भ में भी समझना चाहिए। इस प्रकार संख्या-निर्धारण में सावधानी रखनी चाहिए।
8 जप कैसे करें: जप में मंत्र का स्पष्ट उच्चारण करो। जप में न बहुत जल्दबाजी करनी चाहिए और न बहुत विलम्ब। गाकर जपना, जप के समय सिर हिलाना, लिखा हुआ मंत्र पढ़कर
जप करना, मंत्र का अर्थ न जाननाऔर बीच में मंत्र भूल जाना.. ये सब मंत्रसिद्धि के प्रतिबंधक हैं। जप के समय यह चिंतन रहना चाहिए कि इष्टदेवता, मंत्र और गुरुदेव एक ही हैं।
9.समयः जप के लिए सर्वोत्तम समय प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त है किन्तु अनुष्ठान के समय में जप की अधिक संख्या होने की वजह से एक साथ ही सब जप पूरे हो सकें,
यह संभव नहीं हो पाता। अतः अपना जप का समय 3-4बैठकों में निश्चित कर दो। सूर्योदय, दोपहर के 12 बजे के आसपास एवं सूर्यास्त के समय जप करो तो लाभ ज्यादा होगा।
10. आहारः अनुष्ठान के दिनों में आहार बिल्कुल सादा, सात्त्विक, हल्का, पौष्टिक एवं ताजा होना चाहिए। हो सके तो एक ही समय भोजन करो एवं रात्रि को फल आदि ले लो।
इसका अर्थ भूखमरी करना नहीं वरन् शरीर कोहल्का रखना है। बासी, गरिष्ठ, कब्ज करने वाला, तला हुआ, प्याज, लहसुन, अण्डे मांसादि तामसिक भोजन कदापि ग्रहण न करो।
भोजन बनने के तीन घंटे के अंदर ही ग्रहण कर लो। अन्याय से अर्जित, प्याज आदिस्वभाव से अशुद्ध, अशुद्ध स्थान पर बना हुआ एवं अशुद्ध हाथों से (मासिक धर्मवाली स्त्री के हाथों से)
बना हुआ भोजन ग्रहण करना सर्वथा वर्ज्य है।
11. विहारः अनुष्ठान के दिनों में पूर्णतया ब्रह्मचर्य का पालन जरूरी है। अनुष्ठान से पूर्व आश्रम से प्रकाशित ‘यौवन सुरक्षा’ पुस्तक का गहरा अध्ययन लाभकारी होगा। ब्रह्मचर्य-रक्षा के लिए एक मंत्र भी हैः
ॐ नमो भगवते महाबले पराक्रमाय मनोभिलाषितं मनः स्तंभ कुरु कुरु स्वाहा।
रोज दूध में निहार कर 21 बार इस मंत्र का जप करो और दूध पी लो। इससे ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। यह नियम तो स्वभाव में आत्मसात् कर लेने जैसा है।
12. मौन एवं एकान्तः अनुष्ठान अकेले ही एकांत में करना चाहिए एवं यथासंभव मौन का पालन करना चाहिए। अनुष्ठान करने वाला यदि विवाहित है, गृहस्थ है, तो भी अकेले ही अनुष्ठान करें।
13. शयनः अनुष्ठान के दिनों में भूमि शयन करो अथवा पलंग से कोमल गद्दे हटाकर चटाई, कंतान (टाट) या कंबल बिछाकर जप-ध्यान करते-करते शयन करो।
14. निद्रा, तन्द्रा एवं मनोराज से बचोः शरीर में थकान, रात्रि-जागरण, गरिष्ठ पदार्थ का सेवन, ठूँस-ठूँसकर भरपेट भोजन-इन कारणों से भी जप के समय नींद आती है। स्थूल निद्रा को जीतने के लिए आसन करने चाहिए।
कभी कभी जप करते करते झपकी लग जाती है। ऐसे में माला तो यंत्रवत चलती रहती है, लेकिन कितनी मालाएँ घूमीं इसका कोई ख्याल नहीं रहता।
यह सूक्ष्म निद्रा अर्थात तंद्रा है। इसको जीतने के लिए प्राणायाम करने चाहिए। कभी कभी ऐसा भी होता है कि हाथ में माला घूमती है
जिह्वा मंत्र रटती है किन्तु मन कुछ अन्य बातें सोचने लगता है। यह है मनोराज। इसको जीतने के लिए ‘ॐ’ का दीर्घ स्वर से जप करना चाहिए।
15. स्वच्छता और पवित्रताः स्नान के पश्चात् मैले, बासी वस्त्र नहीं पहनने चाहिए। शौच के समय पहने गये वस्त्रों को स्नान के पश्चात् कदापि नहीं पहनना चाहिए।
वे वस्त्र उसी समय स्नान के साथ धो लेना चाहिए। फिरभले बिना साबुन के ही पानी में साफ कर लो।
लघुशंका करते वक्त साथ में पानी होना जरूरी है। लघुशंका के बाद इन्द्रिय पर ठण्डा पानी डालकर धो लो। हाथ-पैर धोकर कुल्ले भी कर लो। लघुशंका करके तुरंत पानी न पियो। पानी पीकर तुरंत लघुशंका न करो।
दाँत भी स्वच्छ और श्वेत रहने चाहिए। सुबह एवं भोजन के पश्चात भी दाँत अच्छी तरह से साफ कर लेना चाहिए। कुछ भी खाओ-पियो, उसके बाद कुल्ला करके मुखशुद्धि अवश्य करनी चाहिए।
जप करने के लिए हाथ-पैर धोकर, आसन पर बैठकर शुद्धि की भावना के साथ जल के तीन आचमन ले लो। जप के अंत में भी तीन आचमन करो।
जप करते समय छींक, जम्हाई, खाँसी आ जाये या अपानवायु छूटे तो यह अशुद्धि है। उस समय की माला नियत संख्या में नहीं गिननी चाहिए।
आचमन करके शुद्ध होने के बाद वह माला फिर से करनी चाहिए। आचमन केबदले ‘ॐ’ संपुट के साथ गुरुमंत्र सात बार दुहरा दिया जाये तो भी शुद्धि हो जाएगी।
जैसे मंत्र है ‘नमः शिवाय’ तो सात बार ‘ॐ नमः शिवाय ॐ’ दुहरा देने से पड़ा हुआ विघ्न निवृत्त हो जाएगा।
जप के समय यदि मलमूत्र की हाजत हो जाये तो उसे दबाना नहीं चाहिए। ऐसी स्थिति में जप करना छोड़कर कुदरती हाजत निपटा लेनी चाहिए।
शौच गये हो तो स्नानादि से शुद्ध होकर स्वच्छ वस्त्र पहन कर फिर जप करो।यदि लघुशंका करने गये हो तो केवल हाथ-पैर-मुँह धोकर कुल्ला करके शुद्ध-पवित्र हो जाओ। फिर से जप का प्रारंभ करके बाकी रही हुई जप-संख्या पूर्ण करो।
16. चित्त के विक्षेप का निवारण करोः अनुष्ठान के दिनों में शरीर-वस्त्रादि को शुद्ध रखने के साथ-साथ चित्त को भी प्रसन्न, शान्त और निर्मल रखना आवश्यक है।
रास्ते में यदि मल-विष्ठा, थूक-बलगम अथवा कोई मराहुआ प्राणी आदि गंदी चीज के दर्शन हो जायें तो तुरंत सूर्य, चंद्र अथवा अग्नि का दर्शन कर लो, संत-महात्मा का दर्शन-स्मरण कर लो, भगवन्नाम का उच्चारण कर लो ताकि चित्त के क्षोभ का निवारण हो जाये।
17. नेत्रों कि स्थितिः आँखें फाड़ फाड़ कर देखने से आँखों के गोलकों की शक्ति क्षीण होती है। आँखें बँद करके जप करने से मनोराज की संभावना होती है।
अतः मंत्रजप एवं ध्यान के समय अर्धोन्मीलित नेत्र होने चाहिए| इससे ऊपर की शक्ति नीचे की शक्ति से एवं नीचे की शक्ति ऊपर की
शक्ति से मिल जायेगी। इस प्रकार विद्युत का वर्तुल पूर्ण हो जायेगा और शक्ति क्षीण नहीं होगी।
18.मंत्र में दृढ़ विश्वासः मंत्रजप में दृढ़ विश्वास होना चाहिए। विश्वासो फलदायकः।
‘यह मंत्र बढ़िया है कि वह मंत्र बढ़िया है... इस मंत्र से लाभ होगा कि नहीं होगा...’ ऐसा संदेह करके यदि मंत्रजप किया जायेगा तो सौप्रतिशत परिणाम नहीं आयेगा।
19. एकाग्रताः जप के समय एकाग्रता का होना अत्यंत आवश्यक है। एकाग्रता के कई उपाय हैं। भगवान, इष्टदेव अथवा सदगुरुदेव के फोटो की ओर एकटक देखो।
चंद्र अथवा ध्रुव तारे की ओर एकटक देखो। स्वस्तिक या‘ॐ’ पर दृष्टि स्थिर करो। ये सब त्राटक कहलाते हैं। एकाग्रता में त्राटक का प्रयोग बड़ी मदद करता है।
20.नीच कर्मों का त्यागः अनुष्ठान के दिनों में समस्त नीच कर्मों का त्याग कर देना चाहिए। निंदा, हिंसा, झूठ-कपट, क्रोध करने वाला मानव जप का पूरा लाभ नहीं उठा सकता। इन्द्रियों को उत्तेजित करनेवाले नाटक,सिनेमा, नृत्य-गान आदि दृश्यों का अवलोकन एवं अश्लील साहित्य का पठन नहीं करना चाहिए। आलस्य नहीं करना चाहिए। दिन में नहीं सोना चाहिए।
21. यदि जप के समय काम-क्रोधादि सतायें तोः काम सताये तो भगवान नृसिंह का चिंतन करो।
मोह के समय कौरवों को याद करो। लोभ के समय दान पुण्य करो। सोचो कि कौरवों का कितना लंबा-चौड़ा परिवार था किन्तुआखिर क्या? अहं सताए तो अपने से धन, सत्ता एवं रूप में बड़े हों, उनका चिंतन करो।
इस प्रकार इन विकारों का निवारण करके, अपना विवेक जाग्रत रखकर जो अपनी साधना करता है, उसका इष्टमंत्र जल्दी फलता है।
विधिपूर्वक किया गया गुरुमंत्र का अनुष्ठान साधक के तन को स्वस्थ, मन को प्रसन्न एवं बुद्धि को सूक्ष्म करने में तथा जीवन को जीवनदाता
के सौरभ से महकाने में सहायक होता है। जितना अधिक जप, उतना अधिक फल।अधिकस्य अधिकं फलम्।