मंत्र महात्म्य
मननात त्रायते यस्मात तस्मान्मन्त्र: प्रकीर्तित
जो मनन करने पर संसार से तार देता है, उसे मन्त्र कहते हैं,
मंत्र किसको बोलते हैं?
जो जिसका मनन करने से संसार से आदमी तर जाए उसको... मनानात त्रायते इति मंत्र हाँ............
मनानात त्रायते यस्मात तस्मान्मंत्र: प्रकीर्तितः
जो मन को संसार के विकारों से जनम मरण से तार दे उसका नाम है मंत्र |
जो संसार से निस्तार चाहते हैं, मंगलमय भगवान ही सद्गुरु रूप से मंत्र देकर
उनका उद्धार करते है इसलिए सद्गुरु को विष्णु पाद भगवदपाद आदि कहा जाता है|
जो कृपा करके मंत्र देते है उन करूणामय श्री गुरुदेव, गुरुमंत्र और
इष्टदेव मे जिसकी भेद्बुद्धि है उसका मंगल असंभव है |
यो: मन्त्रः स: गुरु: साक्षात् यो: गुरु स: हरि स्वयं |
गुरु प्रदत्त जो मंत्र है वह साक्षात गुरु ही हैं और जो गुरु हैं वे स्वयं भगवान श्री हरि हैं ऐसा भक्ति
सन्दर्भ मे कहा गया है|
यस्य देव: च मंत्रे च गुरु त्रिशयापी च निश्चला |न व्यवः चिध्यते बुद्धि तस्य सिद्धि अदुरतः ||
मंत्र देवता , मंत्र और सद्गुरु मे अचला भक्ति रहने से शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है - हरिभक्ति विलास
मंत्र भगवन नामात्मक है, नाम के साथ चतुर्थी विभक्ति और नमः शब्द का प्रयोग होने से एवं उसके साथ प्रणव या बीजमंत्र जुड़ जाने से मंत्र होता है
मंत्र दीक्षा द्वारा मुक्ति प्राप्ति के सम्बन्ध मे शास्त्र कहते हैं-
तपस्विना: कर्मनिष्ठा श्रेष्ठास्ते वै नर: भुवि: प्रप्तायेस्तु हर्रे
दीक्षा सर्वदुख: विमोचिनी
हाँ...... जिनको भगवद प्राप्ति की दीक्षा मिली उन्हीं का जीवन धन्य है|
जो लोग भगवद दीक्षा प्राप्त करते है वे ही तपस्वी हैं, वे ही वास्तव मे सत्कर्म निष्ठ हैं एवं धरती पर श्रेष्ठ है क्योंकि
भगवन्नाम संयुक्त मंत्र की दीक्षा समस्त दुखो का विनाश और मुक्ति प्रदान करती है | -स्कन्दपुराण
वृहद् भागवद अमृत मे आता है –
भगवनमन्त्र जप मात्रेनेव मुक्ति सुष्टु सिध्यति
सद्गुरु से भगवन मंत्र की दीक्षा लेकर उसका श्रद्दा, प्रीतिपूर्वक जप करने मात्र से शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त होती है| मंत्र जप से सब कुछ सिद्ध किया जा सकता है|
मंत्र जप से सब कुछ प्राप्त हो सकता है यश, धन, आरोग्य, भगवान और भगवान जिससे भगवान है ऐसा ब्रहमज्ञान भी मंत्रशक्ति से..
नियमित एवं लगन से जप करने वाले के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है| जप से चित शुद्धि होती है जप से चित की शुद्धि होती है, अनर्थ की निवृति होती है और काम क्रोध आदि षड्विकार दूर होते हैं|
जीवन मे समता शांति संतोष, सद्भाव, पवित्रता, परदुखकातरता आदि सद्गुण सहज मे ही आने लगते है|
गुरुमंत्र का जप करने से पुत्र की कामना वाले को पुत्र की प्राप्ति होती है, धन की कामना वाले
को धन प्राप्त होता है, शास्त्रों का रहस्य जानने की इच्छा वाले को वह सुलभ होने लगता है|
इनके साथ ही स्वास्थ्य, भगवद ,सुख ,योग्यता निखार आदि लाभ बिना मांगे मिल जाते हैं| गुरुमंत्र त्रिभुवन को वशीभूत करने मे समर्थ होता है| जापक के प्रति सभी स्वाभाविक ही मोहित हो जाते हैं क्योंकि उसके हृदय में सर्व सत्ताधीश भगवान के नाम का वास होता है| वह सबके मंगल मे रत होता है| मणियों मे जैसे चिंतामणि, गौओ मे कामधेनु, नारियो मे सतीजी और नदियों मे जैसे गंगा जी श्रेष्ठ हैं उसी प्रकार समस्त मंत्रो मे मंत्र दीक्षा से प्राप्त अपना वैदिक मंत्र श्रेष्ठ है| शास्त्रों के मध्य मे जैसे मोक्ष प्रधान शास्त्र श्रेष्ठ है.. सभी शास्त्रों मे जैसे मोक्ष देने वाले शास्त्र श्रेष्ठ हैं हाँ.....
उसी प्रकार ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु प्रदत मंत्र.... सब मंत्रो से श्रेष्ठ है| अन्य समस्त मंत्रो की अपेक्षा श्रेष्ठ है| यह सब प्रकार के मंत्रो की अपेक्षा अधिक वीर्यशाली होता है|
अधिक.. अधिक प्रभावशाली होता है गुरुमंत्र ज्यादा वीर्यवान होता है, जैसे आंवला है न वीर्यवान बनता तो च्यवनप्राश बनाते..
यह अज्ञान एवं पाप का नाशक ,सर्वार्थसाधक, वांछित फलप्रद एवं मोक्ष प्राप्ति का सुदृढ़ संबल है|
इसमें कोई संदेह नहीं है| गुरुमंत्र का महात्मय अवर्णीय है| मंत्र जप के सम्बन्ध मे वृहद् भागवत अमृत मे कहते हैं- सर्वप्रथम गुरुवाक्यों मे विश्वास होना चाहिए उसके बाद आत्मानुभूति प्राप्त होती है इसलिए पहले श्रद्धा की आवश्यकता है| दृढ़ श्रद्धा के फलस्वरूप गुरुकृपा और गुरुकृपा के फलस्वरूप मंत्र सिद्धि होती है|
गुरुसंतोष मात्रेण मंत्र सिद्धिरभवेत ध्रुवं | - गौतमी तंत्र
श्री हरि भक्ति विलास मे कहा गया है मंत्र सिद्धि के लिए प्रीतिपूर्वक गुरुसेवा करनी चाहिए तभी मंत्र सिद्धि होगी एवं भगवान भी प्रसन्न होंगे| समस्त मंगल कार्यो मे गुरु ही मूल हैं इसलिए भक्तियुक्त चित्त से नित्यप्रति गुरुदेव की सेवा करनी चाहिए पुरश्चरण(अर्थ है कि साधक नियमित माला की संख्या का जप करने का संकल्प लेता है। इसलिये जप की संख्या के अनुसार नित्य की जप संख्या का निर्धारण होता है। ) आदि से हीन होने पर भी प्रीतिपूर्वक गुरुसेवा द्वारा ही साधक सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं| भगवान साधक को अपने से भी पहले सद्गुरु की पूजा करने की आज्ञा देते हैं|
प्रथमं तु गुरुंपुज्यं ततश्चैव मम अर्चनम् |
कुर्वन् सिद्धि अवाप्नोति ही अन्यथा निष्फलं भवेत ||
साधक सर्वप्रथम श्री गुरुदेव की पूजा करके उसके बाद मेरी पूजा करेंगे तभी सिद्धि लाभ होगा अन्यथा पूजा निष्फल होगी|